अध्याय 1, श्लोक 21: अर्जुन द्वारा युद्ध भूमि में संबंधियों को देखना
अध्याय 1: विषाद योग
अर्जुन
श्रीकृष्ण
अर्जुन द्वारा युद्ध के लिए तैयार खड़े संबंधियों को देखने की इच्छा
इस श्लोक में अर्जुन श्रीकृष्ण से पुनः अनुरोध करते हैं कि वे उनके रथ को दोनों सेनाओं के बीच में ले जाएं, ताकि वे युद्ध के लिए उत्सुकता से खड़े हुए अपने संबंधियों और मित्रों को स्पष्ट रूप से देख सकें। यह अनुरोध अर्जुन के बढ़ते मोह और संदेह को दर्शाता है।
विस्तृत व्याख्या:
• अर्जुन उवाच - अर्जुन बोले। यह दर्शाता है कि अब अर्जुन सक्रिय रूप से अपनी भावनाएं व्यक्त कर रहे हैं।
• सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत - हे अच्युत! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में स्थापित करो। यह पिछले श्लोक के अनुरोध की पुनरावृत्ति है, जो अर्जुन की आंतरिक उथल-पुथल को दर्शाती है।
• यावदेतान्निरीक्षेऽहं - जिससे मैं इन सबको देख सकूं। 'निरीक्षे' शब्द का अर्थ है सावधानीपूर्वक देखना या निरीक्षण करना।
• योद्धुकामानवस्थितान् - युद्ध करने की इच्छा से खड़े हुए लोगों को। 'योद्धुकामान' का अर्थ है 'युद्ध करने की इच्छा रखने वाले'।
मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण: अर्जुन का यह अनुरोध उनकी बढ़ती चिंता और संदेह को दर्शाता है। वे युद्ध प्रारंभ करने से पहले एक बार फिर से स्थिति का सामीप्य से अवलोकन करना चाहते हैं। यह मानवीय स्वभाव का सामान्य लक्षण है - महत्वपूर्ण निर्णय लेने से पहले पुनः विचार करना और स्थिति को पूर्ण रूप से समझना।
प्रतीकात्मक अर्थ: 'दोनों सेनाओं के बीच' का प्रतीकात्मक अर्थ है संदेह और निश्चय के बीच, धर्म और अधर्म के बीच, कर्तव्य और मोह के बीच। अर्जुन इस संधि स्थल पर खड़े होकर अपने आंतरिक संघर्ष का समाधान ढूंढना चाहते हैं।
यह श्लोक महाभारत युद्ध के उस निर्णायक क्षण को दर्शाता है जब अर्जुन ने युद्ध प्रारंभ करने से पहले अंतिम बार स्थिति का आकलन करने का निर्णय लिया। यह क्षण गीता के उपदेश का प्रारंभिक बिंदु है।
युद्ध रणनीति: प्राचीन युद्ध रणनीति में सेनाओं के बीच स्थित होना एक सामान्य प्रथा थी। यह योद्धा को दोनों पक्षों को स्पष्ट रूप से देखने और युद्ध की रणनीति बनाने में सहायक होता था। अर्जुन का यह अनुरोध युद्ध रणनीति के दृष्टिकोण से भी उचित था।
मनोवैज्ञानिक महत्व: अर्जुन का यह अनुरोध उनकी बढ़ती मानसिक उथल-पुथल को दर्शाता है। वे जानते हैं कि युद्ध अनिवार्य है, लेकिन उनके मन में संदेह और द्वंद्व उत्पन्न हो रहा है। यह मानवीय संवेदनशीलता का सार्वभौमिक चित्रण है।
अच्युत का महत्व: 'अच्युत' का अर्थ है 'जो कभी न गिरे' या 'जो सदैव स्थिर रहे'। यह नाम श्रीकृष्ण की दिव्यता और स्थिरता को दर्शाता है। अर्जुन के मन की अस्थिरता के समय श्रीकृष्ण की यह स्थिरता महत्वपूर्ण थी।
सांस्कृतिक प्रभाव: इस श्लोक ने भारतीय संस्कृति में 'सही दृष्टिकोण' और 'मार्गदर्शन' के महत्व को स्थापित किया। यह शिक्षा देता है कि जीवन की कठिनाइयों का सामना करने के लिए सही परिप्रेक्ष्य और दिव्य मार्गदर्शन आवश्यक है।
दार्शनिक संदर्भ: यह श्लोक गीता के दार्शनिक संवाद का प्रारंभ है। अर्जुन का यह सरल अनुरोध एक गहन दार्शनिक चर्चा का कारण बनेगा जो मानव जीवन के मूलभूत प्रश्नों को संबोधित करेगी।
यह श्लोक अर्जुन के विषाद के प्रारंभ का सूचक है। अब श्रीकृष्ण अर्जुन का अनुरोध स्वीकार करेंगे और रथ को युद्ध भूमि के मध्य ले जाएंगे, जहाँ अर्जुन का पूर्ण विषाद प्रकट होगा।
श्लोक 22-23: अर्जुन द्वारा युद्ध भूमि में अपने संबंधियों को देखकर विस्तृत वर्णन करना।
श्लोक 24-25: अर्जुन का श्रीकृष्ण से युद्ध न करने का निर्णय सुनाना।
श्लोक 26-27: अर्जुन का विषाद और मोह में ग्रस्त होना।
श्लोक 28-30: अर्जुन के शारीरिक और मानसिक लक्षणों का वर्णन।
श्लोक 31-47: अर्जुन का विस्तृत विषाद और श्रीकृष्ण से प्रश्न।
श्लोक 48-50: अर्जुन का श्रीकृष्ण के पास बैठ जाना और युद्ध न करने का निश्चय।
अध्याय 2 श्लोक 1-: श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को उपदेश देना प्रारंभ करना।