भगवद गीता अध्याय 1

अध्याय 1: विषाद योग - अर्जुन का विषाद और भगवान कृष्ण से संवाद की शुरुआत

अध्याय 1: विषाद योग

अध्याय सार

भगवद गीता का पहला अध्याय "विषाद योग" के नाम से जाना जाता है। इसमें कुरुक्षेत्र के युद्ध के मैदान में अर्जुन के मन में उत्पन्न हुए संशय और विषाद का वर्णन है।

"यह अध्याय मनुष्य के मन में उत्पन्न होने वाले संशय, भ्रम और नैतिक दुविधाओं को दर्शाता है, जो अंततः दिव्य मार्गदर्शन की आवश्यकता को प्रकट करता है।"

अर्जुन अपने ही परिवार के सदस्यों, गुरुओं और मित्रों के विरुद्ध युद्ध करने के विचार से व्यथित हो जाते हैं। वह युद्ध के परिणामस्वरूप होने वाले विनाश और पारिवारिक मूल्यों के विघटन से चिंतित होकर अपने धनुष को त्याग देते हैं।

मुख्य बिंदु

• अर्जुन का युद्ध के मैदान में अपने स्वजनों को देखकर मोह और दुःख में फंसना

• अर्जुन का युद्ध न करने का निर्णय और उसके तर्क

• भगवान कृष्ण द्वारा अर्जुन को उपदेश देने की पृष्ठभूमि का निर्माण

• मानवीय दुविधाओं और नैतिक संकट का चित्रण

प्रमुख श्लोक

श्लोक 1

धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय
धृतराष्ट्र बोले: हे संजय! धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में एकत्रित, युद्ध की इच्छा वाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?
अर्थ: यह श्लोक गीता के संवाद की शुरुआत को चिह्नित करता है, जहाँ धृतराष्ट्र संजय से कुरुक्षेत्र के युद्ध के बारे में पूछते हैं।

श्लोक 20

अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः
तब (अर्जुन ने) हनुमान वाले ध्वज वाले, व्यवस्थित खड़े हुए कौरवों को देखकर, शस्त्र संघर्ष आरम्भ होने पर, धनुष उठाते हुए पाण्डुपुत्र (अर्जुन) ने हे अर्जुन! (कृष्ण से) यह वचन कहा।
अर्थ: अर्जुन युद्ध आरम्भ होने से पहले श्रीकृष्ण से अपनी दुविधा व्यक्त करते हैं।

श्लोक 46

यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्
यदि शस्त्रधारी कौरव, शस्त्ररहित और प्रतिकार न करने वाले मुझे युद्ध में मार डालें, तो वह मेरे लिए अधिक कल्याणकारी होगा।
अर्थ: अर्जुन की चरम निराशा और युद्ध न करने की दृढ़ इच्छा को दर्शाता है।

जीवन में सीख

अध्याय 1 हमें सिखाता है कि जीवन में कई बार हम गहन नैतिक और भावनात्मक दुविधाओं का सामना करते हैं। अर्जुन की तरह, हम भी अपने कर्तव्य और भावनाओं के बीच फंस सकते हैं।

"वास्तविक समस्या बाहरी परिस्थितियों में नहीं, बल्कि हमारे मन के भीतर के द्वंद्व में होती है।"

यह अध्याय हमें यह समझने में मदद करता है कि जब हम भ्रम और संदेह की स्थिति में होते हैं, तब दिव्य मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। अर्जुन का विषाद ultimately उन्हें श्रीकृष्ण से दिव्य ज्ञान प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त करता है।

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