अध्याय सार
भगवद गीता का दूसरा अध्याय "सांख्य योग" के नाम से प्रसिद्ध है। यह अध्याय गीता का सार तत्व माना जाता है और इसमें भगवान कृष्ण ने अर्जुन के सभी संशयों और प्रश्नों का समाधान प्रस्तुत किया है।
"यह अध्याय गीता का हृदय है जिसमें आत्मा की अमरता, कर्तव्यपालन का महत्व और स्थितप्रज्ञ के गुणों का विस्तार से वर्णन है।"
इस अध्याय में भगवान कृष्ण ने तीन मुख्य विषयों पर प्रकाश डाला है: आत्मा की अमरता का ज्ञान (सांख्य योग), निष्काम कर्म का सिद्धांत (कर्म योग), और स्थिर बुद्धि वाले व्यक्ति के लक्षण (स्थितप्रज्ञ)।
मुख्य विषय
• आत्मज्ञान: आत्मा की अमरता और शरीर की नश्वरता का विवेचन
• कर्मयोग: निष्काम कर्म का सिद्धांत और कर्तव्यपालन का महत्व
• स्थितप्रज्ञ लक्षण: स्थिर बुद्धि वाले व्यक्ति के गुण और विशेषताएं
• बुद्धि योग: समत्व बुद्धि का विकास और इंद्रियों पर विजय
प्रमुख श्लोक
श्लोक 11
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः॥
तू न शोक करने योग्यों के लिए शोक करता है और पंडितों के समान वचन बोलता है, किन्तु जो विद्वान हैं वे जीवित और मृत दोनों प्रकार के लोगों के लिए शोक नहीं करते।
अर्थ: भगवान कृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि वास्तविक ज्ञानी व्यक्ति जन्म-मरण के चक्र को समझते हुए शोक नहीं करते।
श्लोक 13
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति॥
जिस प्रकार इस शरीर में आत्मा का बाल्यावस्था, यौवनावस्था और वृद्धावस्था में होना है, उसी प्रकार दूसरे शरीर की प्राप्ति होती है, बुद्धिमान पुरुष इससे मोहित नहीं होते।
अर्थ: आत्मा का शरीर परिवर्तन के साथ अस्तित्व बना रहता है, इसलिए ज्ञानी व्यक्ति शरीर के नाश से विचलित नहीं होते।
श्लोक 47
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत बन और तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो।
अर्थ: गीता का सबसे प्रसिद्ध श्लोक जो निष्काम कर्म का सिद्धांत सिखाता है - केवल कर्तव्यपालन करो, फल की चिंता मत करो।
श्लोक 48
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥
हे अर्जुन! तू आसक्ति को त्यागकर योग में स्थित होकर कर्म कर, सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर, उस समत्व को योग कहते हैं।
अर्थ: सफलता और असफलता में समान भाव रखते हुए निष्काम भाव से कर्म करना ही वास्तविक योग है।
श्लोक 50
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्॥
बुद्धि से युक्त पुरुष इस लोक में ही पुण्य-पाप दोनों को त्याग देता है। इसलिए तू योग में तत्पर हो, योग ही कर्मों में कुशलता है।
अर्थ: ज्ञानी व्यक्ति पुण्य-पाप के बंधन से मुक्त हो जाता है और योग द्वारा कर्मों में निपुणता प्राप्त करता है।
श्लोक 62-63
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥
विषयों का चिंतन करते हुए मनुष्य की उनमें आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से कामना उत्पन्न होती है, कामना से क्रोध की उत्पत्ति होती है। क्रोध से मोह उत्पन्न होता है, मोह से स्मृति भ्रम हो जाता है, स्मृति भ्रम से बुद्धि का नाश होता है और बुद्धि के नाश से मनुष्य का पतन हो जाता है।
अर्थ: यह श्लोक मनुष्य के पतन की प्रक्रिया को समझाता है - विषय चिंतन से आसक्ति, कामना, क्रोध, मोह और अंत में बुद्धि का नाश।
जीवन में सीख
अध्याय 2 हमें जीवन के मूलभूत सिद्धांत सिखाता है। यह हमें आत्मा की अमरता का ज्ञान देकर मृत्यु के भय से मुक्त करता है और निष्काम कर्म का सिद्धांत सिखाकर हमें जीवन के संघर्षों में स्थिर रहने की शक्ति प्रदान करता है।
"वास्तविक बुद्धिमान व्यक्ति सफलता और असफलता में समान भाव रखते हैं, क्योंकि उन्हें पता होता है कि आत्मा अमर है और शरीर नश्वर।"
इस अध्याय का सार संदेश है कि हमें अपना कर्तव्य निभाना चाहिए बिना फल की इच्छा के। स्थितप्रज्ञ बनकर इंद्रियों को वश में करना और समभाव में रहना ही वास्तविक सफलता है।
प्रमुख सीख:
• आत्मा अमर है, शरीर नश्वर - इस ज्ञान से मृत्यु का भय दूर होता है
• निष्काम कर्म - बिना फल की इच्छा के कर्तव्यपालन करना
• समत्व बुद्धि - सफलता-असफलता, सुख-दुख में समान भाव रखना
• इंद्रिय संयम - विषयों के चिंतन से बचना और इंद्रियों को वश में करना
विशेष महत्व
अध्याय 2 को "गीता का सार" माना जाता है क्योंकि इसमें गीता के सभी मुख्य विषयों का संक्षिप्त परिचय मिलता है। भगवान कृष्ण ने इस अध्याय में अर्जुन के सभी संशयों का समाधान प्रस्तुत किया और उसे युद्ध के लिए तैयार किया।
इस अध्याय में दिए गए सांख्य योग और कर्म योग के सिद्धांत आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने हज़ारों वर्ष पहले थे। आधुनिक जीवन की चुनौतियों का सामना करने के लिए इन सिद्धांतों का पालन अत्यंत उपयोगी है।