भगवद गीता से जुड़े अक्सर पूछे जाने वाले सवाल और उनके जवाब। श्लोक, अर्थ और जीवन के प्रेरक lessons हिंदी में।
गीता महाभारत का हिस्सा है और भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश दिया। इसे महर्षि वेदव्यास ने संकलित किया। गीता में कुल 18 अध्याय और 700 श्लोक हैं जो कुरुक्षेत्र के युद्ध के मैदान में दिए गए थे।
गीता का मुख्य उद्देश्य मनुष्य को जीवन के वास्तविक उद्देश्य से परिचित कराना है। यह कर्म योग, भक्ति योग और ज्ञान योग के माध्यम से मोक्ष प्राप्ति का मार्ग दिखाती है। गीता सिखाती है कि व्यक्ति को फल की इच्छा किए बिना अपना कर्तव्य निभाना चाहिए।
भगवद गीता में कुल 18 अध्याय हैं। प्रत्येक अध्याय जीवन के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालता है। पहला अध्याय विषाद योग है जबकि अंतिम अध्याय मोक्ष संन्यास योग है।
गीता का मुख्य संदेश है: "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन" - तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, फलों में कभी नहीं। यह संदेश हमें बिना फल की इच्छा के अपना कर्तव्य निभाने की प्रेरणा देता है।
गीता पढ़ने का सबसे अच्छा तरीका है कि आप एक समय में एक अध्याय पढ़ें, उसके अर्थ को समझें और उसे अपने जीवन में लागू करने का प्रयास करें। शुरुआत दूसरे अध्याय से करना उचित है क्योंकि इसमें गीता का मूल सार निहित है।
भगवद गीता संस्कृत भाषा में लिखी गई है। हालांकि, आज यह विश्व की लगभग सभी प्रमुख भाषाओं में अनुवादित हो चुकी है। हिंदी में भी इसके कई अनुवाद और व्याख्याएं उपलब्ध हैं।
गीता में मुख्य रूप से तीन प्रकार के योग बताए गए हैं: कर्म योग (कर्म का मार्ग), भक्ति योग (भक्ति का मार्ग) और ज्ञान योग (ज्ञान का मार्ग)। ये तीनों मार्ग अलग-अलग स्वभाव वाले लोगों के लिए उपयुक्त हैं।
गीता के कई श्लोक महत्वपूर्ण हैं, लेकिन अध्याय 2 का श्लोक 47 सबसे प्रसिद्ध है: "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥" जिसका अर्थ है कि तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, फलों में कभी नहीं।
गीता आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी हज़ारों साल पहले थी। आधुनिक जीवन की समस्याओं जैसे तनाव, अवसाद, निर्णय लेने में कठिनाई आदि के समाधान गीता में मिलते हैं। यह जीवन के प्रति एक संतुलित दृष्टिकोण प्रदान करती है।
गीता पढ़ने से मानसिक शांति, आत्मविश्वास, निर्णय लेने की क्षमता और जीवन के प्रति सही दृष्टिकोण विकसित होता है। यह तनाव कम करने, धैर्य बढ़ाने और आंतरिक शक्ति जगाने में मदद करती है। गीता का ज्ञान व्यक्ति को जीवन की चुनौतियों का सामना करने की शक्ति प्रदान करता है।
भगवद गीता में कुल 700 श्लोक हैं। ये श्लोक 18 अध्यायों में विभाजित हैं। प्रत्येक श्लोक गहन दार्शनिक और आध्यात्मिक ज्ञान से परिपूर्ण है।
गीता का पहला अध्याय "अर्जुन विषाद योग" है जिसमें अर्जुन के मोह और विषाद का वर्णन है। युद्ध के मैदान में अर्जुन अपने ही रिश्तेदारों और गुरुओं के विरुद्ध युद्ध करने से मना कर देते हैं।
कर्म योग गीता का मूल सिद्धांत है जिसके अनुसार व्यक्ति को फल की इच्छा किए बिना अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। यह निष्काम कर्म का मार्ग है जो मनुष्य को कर्म के बंधन से मुक्त करता है।
भक्ति योग भगवान के प्रति प्रेम और समर्पण का मार्ग है। गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं कि भक्ति के द्वारा भी मनुष्य परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। यह सबसे सरल मार्ग माना जाता है।
ज्ञान योग आत्मज्ञान और तत्त्वज्ञान का मार्ग है। इसमें मनुष्य वेदांत के सिद्धांतों के माध्यम से आत्मा और परमात्मा के वास्तविक स्वरूप को जानकर मोक्ष प्राप्त करता है।
स्थितप्रज्ञ वह व्यक्ति है जिसकी बुद्धि स्थिर है। वह सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय में समान रहता है। ऐसा व्यक्ति इंद्रियों को वश में रखता है और हमेशा शांतचित्त रहता है।
गीता में प्रकृति के तीन गुण बताए गए हैं: सत्त्व (शुद्धता, ज्ञान), रजस (क्रिया, इच्छा) और तमस (अज्ञान, आलस्य)। ये तीनों गुण मनुष्य के स्वभाव और कर्मों को प्रभावित करते हैं।
हाँ, गीता में अष्टांग योग का संक्षिप्त वर्णन है जिसमें यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि शामिल हैं। यह मन को नियंत्रित करने का मार्ग है।
गीता के अनुसार मोक्ष जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति है। यह आत्मा का परमात्मा में विलय है। मोक्ष प्राप्ति के लिए व्यक्ति को अहंकार, इच्छा और मोह का त्याग करना होता है।
निष्काम कर्म का अर्थ है बिना फल की इच्छा के कर्म करना। गीता में इस पर जोर दिया गया है कि व्यक्ति को केवल कर्तव्य पालन करना चाहिए, फल की चिंता नहीं करनी चाहिए।
स्वधर्म का अर्थ है अपना कर्तव्य। गीता में कहा गया है कि व्यक्ति को अपने स्वभाव और योग्यता के अनुसार निर्धारित कर्तव्यों का पालन करना चाहिए, चाहे वह कितना भी छोटा क्यों न हो।
परधर्म का अर्थ है दूसरे का कर्तव्य। गीता में कहा गया है कि परधर्म से स्वधर्म श्रेष्ठ है, क्योंकि दूसरे के कर्तव्य को अपनाने में खतरा रहता है और सफलता निश्चित नहीं होती।
गीता के अनुसार आत्मा अजर, अमर, अविनाशी, नित्य, सर्वव्यापी और परमात्मा का अंश है। आत्मा न तो जन्म लेती है और न ही मरती है, वह केवल शरीर बदलती है।
गीता में ईश्वर को सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान, अनादि, अनंत, निराकार और साकार दोनों रूपों में वर्णित किया गया है। वह समस्त ब्रह्मांड का कारण और नियंता है।
गीता में मन को चंचल और नियंत्रण में लाने में कठिन बताया गया है, लेकिन अभ्यास और वैराग्य से इसे वश में किया जा सकता है। नियंत्रित मन ही मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है।
इंद्रियाँ मनुष्य को बाहरी विषयों की ओर खींचती हैं जिससे मोह और आसक्ति उत्पन्न होती है। गीता में इंद्रियों को वश में करने पर जोर दिया गया है ताकि मन एकाग्र हो सके।
वर्णाश्रम धर्म समाज की व्यवस्था है जिसमें चार वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) और चार आश्रम (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास) हैं। गीता में गुण और कर्म के आधार पर वर्ण व्यवस्था बताई गई है।
अहंकार वह भाव है जिसमें व्यक्ति स्वयं को कर्ता मानता है। गीता में अहंकार को मोक्ष का बाधक बताया गया है। निष्काम कर्म करने से अहंकार का नाश होता है।
माया वह शक्ति है जो जड़-चेतन के संयोग से इस सृष्टि की रचना करती है। यह ईश्वर की शक्ति है जो सत्य को ढक लेती है और जगत को वास्तविक दिखाती है।
प्रकृति जड़ शक्ति है जिससे यह समस्त सृष्टि बनी है, जबकि पुरुष चेतन तत्त्व है जो प्रकृति को सक्रिय करता है। आत्मा पुरुष तत्त्व है और शरीर प्रकृति से बना है।
विभूति योग गीता के दसवें अध्याय में है जिसमें भगवान कृष्ण अपनी विभिन्न विभूतियों (दिव्य गुणों और रूपों) का वर्णन करते हैं। वे बताते हैं कि संपूर्ण ब्रह्मांड में जो कुछ भी श्रेष्ठ और ऐश्वर्यपूर्ण है, वह उन्हीं की विभूति है।
गीता में चार प्रकार के भक्त बताए गए हैं: आर्त (संकट में भगवान को याद करने वाले), जिज्ञासु (ज्ञान की खोज में), अर्थार्थी (धन-संपत्ति चाहने वाले) और ज्ञानी (तत्त्वज्ञानी)। इनमें ज्ञानी भक्त सर्वश्रेष्ठ माना गया है।
दैवी संपदा दिव्य गुण हैं जो मनुष्य को ईश्वर की ओर ले जाते हैं, जबकि आसुरी संपदा दानवीय गुण हैं जो नरक की ओर ले जाते हैं। गीता के 16वें अध्याय में इनका विस्तृत वर्णन है।
श्रद्धा गहन विश्वास और आस्था है। गीता में कहा गया है कि प्रत्येक व्यक्ति की श्रद्धा उसके स्वभाव के अनुरूप होती है। श्रद्धा के बिना कोई भी साधना सफल नहीं होती।
गीता में कर्मों का त्याग न करके, कर्मफल का त्याग करने को कहा गया है। संन्यास का वास्तविक अर्थ है आसक्ति का त्याग, न कि कर्मों का। सांख्य और योग दोनों ही मोक्ष के मार्ग हैं।
ध्यान योग मन को एकाग्र करने की विधि है। गीता के छठे अध्याय में ध्यान की विधि बताई गई है - शरीर और सिर को सीधा रखकर, इंद्रियों को वश में कर, मन को परमात्मा में स्थिर करना ध्यान है।
अक्षर ब्रह्म वह निराकार, निर्विकार, अनंत और अविनाशी तत्त्व है जो समस्त सृष्टि का आधार है। यह ओम्कार के रूप में प्रकट होता है और सभी वेदों का सार है।
पुरुषोत्तम शब्द का अर्थ है सर्वश्रेष्ठ पुरुष। गीता में भगवान कृष्ण स्वयं को पुरुषोत्तम कहते हैं जो क्षर (नाशवान प्रकृति), अक्षर (नित्य आत्मा) और उत्तम पुरुष (परमात्मा) से परे हैं।
अनासक्ति का अर्थ है आसक्ति रहित होना। गीता में अनासक्ति को मोक्ष का महत्वपूर्ण साधन बताया गया है। व्यक्ति को कर्म करते हुए भी उसके फल और कर्म में आसक्ति नहीं रखनी चाहिए।
समदर्शिता का अर्थ है सबमें समान दृष्टि रखना। गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं कि ज्ञानी व्यक्ति सबमें एक ही आत्मा को देखता है - सुख-दुख, लाभ-हानि, मित्र-शत्रु में समभाव रखता है।
गीता में यज्ञ का अर्थ केवल हवन-कर्म नहीं है, बल्कि कोई भी निष्काम कर्म यज्ञ है। ज्ञान यज्ञ, द्रव्य यज्ञ, तप यज्ञ, योग यज्ञ आदि विभिन्न प्रकार के यज्ञ बताए गए हैं जो मनुष्य को पापों से मुक्त करते हैं।
दिव्य गुण हैं - अभय, सत्त्वसंशुद्धि, ज्ञानयोगव्यवस्थिति, दान, दम, यज्ञ, स्वाध्याय, तप, अहिंसा, सत्य, अक्रोध, त्याग, शांति, अपैशुनम्, दया, अलोलुपता, मार्दव, ह्री, अचापलम् आदि। दानवीय गुण हैं - दम्भ, दर्प, अभिमान, क्रोध, पारुष्य, अज्ञान आदि।
प्रारब्ध पूर्वजन्म के कर्मों का फल है जो इस जन्म में भोगना पड़ता है। गीता में कहा गया है कि मनुष्य का वर्तमान जीवन पूर्वजन्म के कर्मों से प्रभावित होता है, लेकिन वह नए कर्मों से अपना भविष्य बदल सकता है।
गीता में भगवान कहते हैं कि जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब वह स्वयं अवतार लेते हैं। अवतार का उद्देश्य धर्म की स्थापना, साधुओं की रक्षा और दुष्टों का विनाश करना है।
गीता के अनुसार आत्मा अमर है, शरीर नश्वर है। मृत्यु के बाद आत्मा दूसरा शरीर धारण करती है। जिस भावना से मनुष्य मरता है, उसी के अनुरूप उसे अगला जन्म मिलता है।
ईश्वर की स्तुति भक्ति का महत्वपूर्ण अंग है। इससे मन शुद्ध होता है, अहंकार घटता है और ईश्वर की कृपा प्राप्त होती है। गीता में भगवान कहते हैं कि जो भक्त प्रेमपूर्वक मेरी स्तुति करता है, मैं उसके योगक्षेम का वहन करता हूँ।
गीता में आहार को तीन प्रकार का बताया गया है - सात्विक (ताजा, पौष्टिक, स्वास्थ्यवर्धक), राजसिक (तीखा, खट्टा, नमकीन, गरम) और तामसिक (बासी, दूषित, अशुद्ध)। सात्विक आहार मन को शुद्ध और स्थिर रखता है।
गीता में दान को महत्वपूर्ण बताया गया है। दान सात्विक, राजसिक और तामसिक तीन प्रकार का होता है। सात्विक दान वह है जो योग्य व्यक्ति को, समय और स्थान देखकर, फल की इच्छा किए बिना दिया जाए।
गीता में तप के तीन प्रकार बताए गए हैं - शारीरिक (देव, ब्राह्मण, गुरु की पूजा, शौच, सरलता, ब्रह्मचर्य, अहिंसा), वाचिक (सत्य, प्रिय, हितकर बोलना, वेदपाठ) और मानसिक (मन की शुद्धता, मौन, आत्मसंयम, भावशुद्धि)।
गीता का अंतिम संदेश है: "यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः। तत्र श्रीर्विजयो भूतिध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥" जहाँ योगेश्वर कृष्ण हैं और धनुर्धर अर्जुन हैं, वहाँ श्री (लक्ष्मी), विजय, भूति (ऐश्वर्य) और अटल नीति निश्चित रूप से रहती है। इसका अर्थ है कि जहाँ भगवान और भक्त का मेल होता है, वहाँ सभी प्रकार की समृद्धि स्वतः प्राप्त होती है।
गीता में 'योग' शब्द का अर्थ है 'जोड़ना' या 'मिलाना'। यह आत्मा का परमात्मा से मिलन है। गीता में योग को कर्मों में कुशलता, मन की स्थिरता और ईश्वर से संयोग के रूप में परिभाषित किया गया है।
अर्जुन को विषाद इसलिए हुआ क्योंकि वह अपने ही गुरुजनों, बंधु-बांधवों के विरुद्ध युद्ध करने को तैयार नहीं थे। उन्हें लगा कि ऐसा करने से समाज में वर्णसंकरता फैलेगी और कुलधर्म का नाश होगा।
स्तितप्रज्ञ व्यक्ति सुख-दुख, हानि-लाभ, जय-पराजय में समान रहता है। उसके मन में इच्छाएं नहीं होतीं, वह भय और क्रोध से मुक्त होता है तथा हर परिस्थिति में शांतचित्त रहता है।
सच्चा त्यागी वह है जो आसक्ति और फल की इच्छा का त्याग कर देता है, न कि कर्मों का। गीता में कर्मयोग को ही सच्चा त्याग बताया गया है।
'वासुदेवः सर्वम्' का अर्थ है "वासुदेव (श्रीकृष्ण) ही सब कुछ हैं"। यह भावना जगत की सभी वस्तुओं और प्राणियों में ईश्वर को देखने की है।
प्रकृति के आठ तत्व हैं: पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार। ये सभी तत्व प्रकृति से उत्पन्न होते हैं और उसी में लीन हो जाते हैं।
अनन्य भक्ति का अर्थ है एकनिष्ठ भक्ति, जिसमें भक्त का ईश्वर के अलावा कोई अन्य आश्रय नहीं होता। ऐसा भक्त सदैव ईश्वर का स्मरण करता है और उन्हीं में लीन रहता है।
सांख्य ज्ञान का मार्ग है और योग कर्म का मार्ग है। गीता में कहा गया है कि दोनों मार्गों से प्राप्त फल एक समान है, किंतु कर्मयोग सांख्य से श्रेष्ठ है।
अव्यक्त वह निराकार, अदृश्य तत्त्व है जो इस सृष्टि का मूल कारण है। यह प्रकृति का कारण रूप है और समस्त व्यक्त जगत इसी से प्रकट होता है।
मनुष्य की गति उसके कर्म, संस्कार, विचार और अंतिम समय के भाव पर निर्भर करती है। जिस भावना से मनुष्य मरता है, उसी के अनुरूप उसे अगला जन्म मिलता है।
ब्रह्मभूत व्यक्ति वह है जो अपने आपको ब्रह्म में स्थित जानता है। ऐसा व्यक्ति सदैव प्रसन्नचित्त रहता है, उसे शोक नहीं होता और वह सभी प्राणियों में समभाव रखता है।
दैवी सम्पद् वे दिव्य गुण हैं जो मनुष्य को ईश्वर की ओर ले जाते हैं, जैसे - अभय, सत्त्वसंशुद्धि, ज्ञान, दान, दम, यज्ञ, सत्य, अक्रोध, त्याग आदि।
आसुरी सम्पद् वे दानवीय गुण हैं जो मनुष्य को पतन की ओर ले जाते हैं, जैसे - अज्ञान, दम्भ, दर्प, क्रोध, कठोरता, अहंकार आदि।
परम धाम वह स्थान है जहाँ जाने के बाद साधक फिर संसार में नहीं आता। यह ईश्वर का नित्य धाम है जो अविनाशी, शाश्वत और ज्योतिर्मय है।
क्षर नाशवान प्रकृति है और अक्षर नित्य आत्मा है। क्षर पदार्थ समय के साथ नष्ट हो जाते हैं, जबकि अक्षर आत्मा अविनाशी है।
सनातन धर्म वह शाश्वत धर्म है जो नित्य और सर्वकालिक है। यह आत्मा का स्वभाव है और सभी युगों में एक समान रहता है।
योगक्षेम का अर्थ है - प्राप्त वस्तु की रक्षा और अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति। गीता में भगवान कहते हैं कि वे अपने भक्तों का योगक्षेम स्वयं वहन करते हैं।
अविनाशी तत्त्व वह है जो न कभी जन्म लेता है, न मरता है। यह नित्य, शाश्वत, सनातन और सर्वव्यापी है। यही आत्मा और परमात्मा का स्वरूप है।
इसका अर्थ है "सभी धर्मों का परित्याग कर"। भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि सभी प्रकार के धर्मों को छोड़कर केवल मेरी शरण में आ जा। यहाँ धर्म से तात्पर्य कर्तव्यों से है।
यह गीता का सबसे महत्वपूर्ण वचन है जिसमें भगवान कहते हैं "तू केवल मेरी ही शरण में आ।" यह भक्ति योग का सार है और मोक्ष का सबसे सरल मार्ग बताया गया है।
ज्ञानाग्नि वह दिव्य ज्ञान की अग्नि है जो सभी कर्मों को भस्म कर देती है। जिस प्रकार अग्नि लकड़ी को जला देती है, उसी प्रकार ज्ञानाग्नि सभी पापकर्मों को नष्ट कर देती है।
ब्रह्मनिर्वाण वह अवस्था है जब आत्मा ब्रह्म में पूर्णतया लीन हो जाती है। यह मोक्ष की अवस्था है जिसमें जन्म-मरण के चक्र से पूर्ण मुक्ति मिल जाती है।
अन्त्यकाल (मृत्यु के समय) का बहुत महत्व है क्योंकि अंतिम समय के विचार और भावना के अनुसार ही मनुष्य की भविष्य की गति निर्धारित होती है।
सिद्धि का अर्थ है पूर्णता या सफलता। गीता में कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग - तीनों मार्गों से प्राप्त सिद्धि को समान बताया गया है।
अपरा प्रकृति जड़ तत्त्व है (पंचमहाभूत, मन, बुद्धि, अहंकार) और परा प्रकृति चेतन तत्त्व है (जीवात्मा)। यही क्षर और अक्षर भी कहलाते हैं।
ईश्वर परमात्मा है और जीव उसका अंश है। जैसे सूर्य और उसकी किरणें, वैसे ही ईश्वर और जीव का संबंध है। जीव ईश्वर से अभिन्न होते हुए भी अलग प्रतीत होता है।
ये वे ज्ञानी हैं जो सभी प्राणियों के हित में रत रहते हैं। ऐसे व्यक्ति सभी में एक ही आत्मा को देखते हैं और सबके कल्याण के लिए कार्य करते हैं।
प्रज्ञावादाः वे मूर्ख हैं जो अतत्त्वज्ञानी होकर भी तत्त्वज्ञान की बातें करते हैं। वे वेदों के शब्दों में अटके रहते हैं और वास्तविक तत्त्वज्ञान से वंचित रहते हैं।
द्वन्द्व (सुख-दुख, शीत-उष्ण, लाभ-हानि आदि) से मुक्ति समदर्शिता से मिलती है। जब व्यक्ति इन द्वन्द्वों में समान भाव रखता है, तब वह इनके बंधन से मुक्त हो जाता है।
त्रैगुण्य (सत्त्व, रज, तम) से ऊपर उठने के लिए गीता में समदर्शिता, निष्काम कर्म और ईश्वरार्पण की शिक्षा दी गई है। जब व्यक्ति गुणों को कर्ता नहीं मानता, तब वह गुणातीत हो जाता है।
अनित्य वह है जो नश्वर है (शरीर, संसार), और नित्य वह है जो शाश्वत है (आत्मा, परमात्मा)। ज्ञानी व्यक्ति अनित्य में मन न लगाकर नित्य में मन लगाता है।
सुखदुःख का वास्तविक कारण इंद्रियों का विषयों के साथ संयोग है। जब इंद्रियाँ विषयों से जुड़ती हैं तो सुख-दुःख की अनुभूति होती है। इंद्रियनिग्रह से इन पर विजय पाई जा सकती है।
अक्षरब्रह्म का ज्ञान वह है जिससे मनुष्य निराकार ब्रह्म को जानता है। यह ज्ञान वेदों और उपनिषदों के अध्ययन से प्राप्त होता है और मनुष्य को मोक्ष की ओर ले जाता है।
काम और क्रोध से बचने के लिए गीता में इंद्रियनिग्रह, विषयों से विरक्ति और ईश्वर के प्रति भक्ति का मार्ग बताया गया है। ये दोनों मनुष्य के शत्रु हैं जो ज्ञान को नष्ट कर देते हैं।
इसका अर्थ है "समत्व को योग कहते हैं"। जब मनुष्य सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय में समान भाव रखता है, तब वह योगी कहलाता है।
इसका अर्थ है "कर्मफल का आश्रय न लेना"। यह निष्काम कर्म का मूल मंत्र है। जब व्यक्ति कर्मफल की आसक्ति छोड़ देता है, तब वह कर्मबंधन से मुक्त हो जाता है।
योगभ्रष्ट वह है जो योग साधना में सफल नहीं हो पाता और अधूरा रह जाता है। गीता में कहा गया है कि ऐसा व्यक्ति नष्ट नहीं होता, बल्कि उसे अगले जन्म में फिर से साधना का अवसर मिलता है।
दिव्य चक्षु वह दिव्य दृष्टि है जो भगवान कृष्ण ने अर्जुन को प्रदान की थी। इस दृष्टि से अर्जुन ने भगवान के विश्वरूप को देखा। यह आध्यात्मिक दृष्टि है जो साधना से प्राप्त होती है।
इसका अर्थ है "वास्तव में यह सब कुछ ब्रह्म ही है"। यह दृष्टि समदर्शिता की है जिसमें सृष्टि की हर वस्तु में ब्रह्म का दर्शन किया जाता है।
इसका अर्थ है "मैं सबका उत्पत्तिकारण हूँ"। भगवान कृष्ण कहते हैं कि समस्त ब्रह्मांड की उत्पत्ति मुझसे होती है और सब कुछ मुझमें ही स्थित है।
मत्परमो वह भक्त है जो मुझे (भगवान को) ही परम लक्ष्य मानता है। ऐसा भक्त सदैव मेरा चिंतन करता है, मेरी पूजा करता है और मुझमें ही लीन रहता है।
यह वह वाणी है जो दुःख नहीं देती। सात्विक व्यक्ति की वाणी सत्य, प्रिय और हितकर होती है जो श्रोता के मन में किसी प्रकार का उद्वेग उत्पन्न नहीं करती।
श्रद्धावान् वह है जिसमें दृढ़ श्रद्धा होती है। गीता में कहा गया है कि प्रत्येक व्यक्ति की श्रद्धा उसके स्वभाव के अनुरूप होती है और श्रद्धा के बिना कोई भी साधना सफल नहीं होती।
ये नरक के तीन द्वार हैं - काम, क्रोध और लोभ। गीता में इन तीनों को मनुष्य के पतन का कारण बताया गया है और इनसे दूर रहने की सलाह दी गई है।
यह वह योगी है जो कर्मफल का त्याग करके योग में स्थित रहता है। ऐसा व्यक्ति निष्काम भाव से कर्म करता है और शांति को प्राप्त होता है।
यह वह मनुष्य है जो इंद्रियों के वशीभूत होकर कर्म करता है। ऐसा व्यक्ति कामना और लोभ के वश में होकर कर्म करता है और कर्मबंधन में फंस जाता है।
इसका अर्थ है "जो मुझे सभी प्राणियों में स्थित जानता है"। ऐसा ज्ञानी व्यक्ति सभी में एक ही आत्मा को देखता है और सबके प्रति समभाव रखता है।
इसका अर्थ है "सभी कर्मों को ब्रह्म में अर्पण कर"। यह कर्मयोग का सार है जिसमें व्यक्ति सभी कर्मों का फल भगवान को अर्पण कर देता है और कर्मबंधन से मुक्त हो जाता है।
इसका अर्थ है "मन्मना बनो, मेरा भक्त बनो"। भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि तू मुझमें मन वाला और मेरा भक्त बन। यह भक्ति योग का संक्षिप्त सार है।
गीता का सबसे महत्वपूर्ण उपदेश है: "मनुष्य को फल की इच्छा किए बिना अपना कर्तव्य पालन करना चाहिए और ईश्वर में समर्पित होना चाहिए।" यह जीवन के सभी क्षेत्रों में शांति और सफलता का मार्ग दिखाता है।
'अक्षय्यं पार्थ' का अर्थ है "हे पार्थ! यह अक्षय है"। भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि यह यज्ञ, तप, दान आदि अक्षय फल देने वाले हैं।
इसका अर्थ है कि यह दैवी प्रकृति गुणमयी है। यह तीन गुणों - सत्त्व, रज और तम से युक्त है और जीव इन्हीं गुणों के वश में होकर कर्म करता है।
इसका अर्थ है "अनादित्व और निर्गुणत्व के कारण"। आत्मा अनादि और निर्गुण है, इसलिए वह न तो मरती है और न ही हत्या करने पर हत्या होती है।
यह वह योगी है जो सभी प्राणियों में आत्मा को देखता है और आत्मा में सभी प्राणियों को देखता है। ऐसा व्यक्ति सर्वत्र समदर्शी होता है।
इसका अर्थ है "प्रकृति द्वारा किए जा रहे कर्म"। सभी कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं, लेकिन अहंकार से मोहित आत्मा स्वयं को कर्ता मान बैठती है।
ये वे भक्त हैं जो भक्ति के विभिन्न मार्गों पर चलते हैं - आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी। भगवान कहते हैं कि ये सभी उदार हृदय वाले हैं।
योग में युक्त और विशुद्ध आत्मा वाला व्यक्ति सभी प्राणियों को अपने समान देखता है और सबके कल्याण में लगा रहता है।
ब्रह्मभूत वह व्यक्ति है जो ब्रह्म को प्राप्त हो चुका है और प्रसन्नात्मा है। ऐसा व्यक्ति न तो शोक करता है और न ही किसी वस्तु की इच्छा करता है।
इसका भाव है "सभी प्राणियों में समान दृष्टि"। ज्ञानी व्यक्ति विद्वान, मूर्ख, पशु-पक्षी सभी में एक ही आत्मा को देखता है।
यह वह भक्त है जो मेरे लिए कर्म करता है, मुझे परम मानता है, मेरा भक्त है, मुझसे आसक्ति रखता है और सभी भावों से रहित है।
इसका अर्थ है "अनन्य चित्त वाला और सदैव"। ऐसा भक्त सदैव भगवान का चिंतन करता है और उन्हीं में मन लगाए रहता है।
यह उपदेश गीता के अंत में दिया गया जब भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि सभी धर्मों का परित्याग करके केवल मेरी शरण में आ जा।
योगियों में भी जो मन से मुझमें निरंतर लगा रहता है, उसे मैं सबसे योग्य मानता हूँ। यह भक्ति योग की श्रेष्ठता को दर्शाता है।
ये चार प्रकार के भक्त हैं - आर्त (संकटग्रस्त), जिज्ञासु (ज्ञान की खोज में), अर्थार्थी (धन चाहने वाले) और ज्ञानी (तत्त्वज्ञानी)।
ज्ञानी भक्त नित्ययुक्त और एकनिष्ठ भक्ति वाला होता है। वह मुझे अत्यंत प्रिय है और मैं उसे अत्यंत प्रिय हूँ। ऐसा भक्त शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त होता है।
इसका अर्थ है "अनेक जन्मों के अंत में"। बहुत से जन्मों के बाद जब जीव को ज्ञान होता है तब वह समझ पाता है कि वासुदेव ही सब कुछ हैं।
भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं "हे कौन्तेय! तू प्रतिज्ञा कर कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता"। यह भक्त के कल्याण का आश्वासन है।
यह वरदान है कि "हे कौन्तेय! मेरे पास आकर फिर संसार में जन्म लेने वाले - पुण्यात्मा ही होते हैं, पापी नहीं"।
जो भक्त अनन्य भाव से मेरा चिंतन करते हैं, उनके योगक्षेम (प्राप्त की रक्षा और अप्राप्त की प्राप्ति) का भार मैं स्वयं वहन करता हूँ।
इसका अर्थ है "मैं सबके हृदय में सन्निविष्ट हूँ"। परमात्मा प्रत्येक प्राणी के हृदय में स्थित है और सबके कर्मों का साक्षी है।
यह सिद्ध करता है कि "मुझसे परे कुछ भी नहीं है"। समस्त ब्रह्मांड मुझमें ही व्याप्त है, जैसे मणियों का हार धागे में व्याप्त होता है।
यह उस महात्मा की पहचान है जो समस्त ब्रह्मांड को वासुदेव (कृष्ण) में देखता है और वासुदेव को समस्त ब्रह्मांड में देखता है।
यह उन भक्तों के लिए है जो अनन्य भाव से मेरी भक्ति करते हैं। ऐसे भक्तों का योगक्षेम (प्राप्त की रक्षा और अप्राप्त की प्राप्ति) मैं स्वयं वहन करता हूँ।
इसका वास्तविक अर्थ है सभी प्रकार के कर्तव्य-भाव का परित्याग। व्यक्ति को भगवान में पूर्ण समर्पण कर देना चाहिए, कर्ता भाव का त्याग कर देना चाहिए।
भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा "हे पार्थ! तू क्लैब्य (कायरता) को मत प्राप्त हो"। यह अर्जुन के मोह को दूर करने के लिए कहा गया।
यह उपदेश है "तू नियत कर्म कर"। व्यक्ति को अपने निर्धारित कर्तव्य का पालन अवश्य करना चाहिए, क्योंकि कर्म न करने से बढ़कर कोई पाप नहीं है।
यह आदेश है "योग में स्थित होकर कर्म कर"। व्यक्ति को आसक्ति को त्यागकर और समत्व भाव से कर्म करना चाहिए।
बुद्धियोग से रहित कर्म को हीन कहा गया है। ऐसे कर्म बंधन में डालने वाले होते हैं, इसलिए उनसे दूर रहना चाहिए।
बुद्धियुक्त व्यक्ति इस लोक में ही पुण्य-पाप दोनों को त्याग देता है। इसलिए तू योग में स्थित होकर कर्म कर, क्योंकि योग ही कुशलता है।
बुद्धियुक्त व्यक्ति कर्मजनित फल को त्याग देता है और मोक्षरूपी शांति को प्राप्त होता है, जबकि बुद्धिरहित व्यक्ति आसक्त होकर बंधन में फंस जाता है।
सभी कर्मों को मन से त्यागकर और आसक्ति रहित होकर, शरीर से कर्म करते हुए सुख-दुख में समान रहकर युद्ध कर।
योग को कर्मों में कुशलता इसलिए कहा गया क्योंकि योगी बिना आसक्ति के कर्म करता है और कर्मबंधन में नहीं फंसता।
यह बुद्धिरहित कर्म की ओर संकेत है। जो कर्म बुद्धिपूर्वक नहीं किए जाते, वे हीन होते हैं और बंधन में डालते हैं।
यह कहा गया क्योंकि बुद्धि ही मनुष्य का सच्चा सहारा है। बुद्धियुक्त व्यक्ति ही सही निर्णय ले सकता है और मोक्ष का मार्ग पा सकता है।
क्रोध से संमोह उत्पन्न होता है, संमोह से स्मृति भ्रम होता है, स्मृति भ्रम से बुद्धि नाश होता है और बुद्धि नाश से व्यक्ति का पतन हो जाता है।
भगवान कृष्ण ने गीता ज्ञान को राजविद्या और राजगुह्य कहा है, क्योंकि यह सभी विद्याओं में श्रेष्ठ और गोपनीय ज्ञान है।
ज्ञानरूपी नौका के द्वारा ही संसाररूपी समुद्र को पार किया जा सकता है। ज्ञान ही मनुष्य को भवसागर से पार उतारने वाला है।
यह अर्जुन पर कहा गया जब वह शोक कर रहा था। भगवान ने कहा "तू न शोक करने योग्यों के लिए शोक कर रहा है"।
यह तर्क है कि "जिनकी आत्माएँ गत और अगत हैं, उनके लिए तू शोक नहीं करता, फिर सच्चिदानंद आत्मा के लिए क्यों शोक करता है?"
यह आत्मा के नित्यत्व का दर्शन है - "न मैं कभी नहीं था, न तू था, न ये राजा लोग थे और न भविष्य में हम सब नहीं रहेंगे"।
जिस प्रकार देही (आत्मा) इस शरीर में बाल्य, यौवन और वार्धक्य को प्राप्त होता है, उसी प्रकार मृत्यु के बाद दूसरा शरीर धारण करता है।
यह आत्मा के अविनाशी स्वरूप के कारण कहा गया - "इसे शस्त्र नहीं काटते, अग्नि नहीं जलाती, जल नहीं भिगोता और वायु नहीं सुखाती"।
यह आत्मा के अविनाशी स्वरूप का वर्णन है - "यह अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य और अशोष्य है तथा नित्य, सर्वव्यापी, अचल और स्थिर है"।
आत्मा को अव्यक्त और अचिन्त्य कहा गया है, इसलिए तू शोक न कर। भले ही आत्मा को अव्यक्त और अचिन्त्य मानता है, फिर भी शोक करना उचित नहीं है।
यह सत्य है कि "जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु निश्चित है और जिसकी मृत्यु हुई है, उसका जन्म निश्चित है"। इसलिए अटल विधि के विषय में शोक नहीं करना चाहिए।
आत्मा को अविनाशी कहा गया है - "उस अविनाशी को तू जान, जिससे यह सम्पूर्ण जगत व्याप्त है। इस अविनाशी का विनाश किसी के द्वारा नहीं किया जा सकता"।
यह भाव है कि "ये शरीर अन्तवान (नाशवान) हैं, नित्यस्वरूप उसको कहते हैं जो इन देहों का स्वामी है"। आत्मा नित्य है, शरीर नश्वर है।
रहस्य है कि "जो इस आत्मा को हन्ता मानता है और जो इसे मरने वाला मानता है, उन दोनों को ज्ञान नहीं है, यह न तो मारता है और न मरता है"।
यह आत्मा का स्वभाव है - "यह न कभी जन्मता है, न मरता है, न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला है, यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता"।
यह दृष्टांत है - "जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने शरीरों को त्यागकर नए शरीरों को प्राप्त होता है"।
यह आत्मा के अग्नि से अदाह्य स्वरूप के कारण कहा गया - "इसे अग्नि नहीं जलाती"। आत्मा तो अग्नि से भी सूक्ष्म और अविनाशी है।
रहस्य है कि "अज (अजन्मा) होने पर भी और अव्ययात्मा (अक्षय स्वरूप वाला) होने पर भी तथा समस्त प्राणियों का ईश्वर होने पर भी वह प्रकृति में अवस्थित होकर अपने स्वाभाविक धर्म से उत्पन्न होता है"।
यह भगवान का संकल्प है - "जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने आपको प्रकट करता हूँ"।
अवतार का उद्देश्य है - "साधुओं के परित्राण (रक्षा) के लिए, दुष्टों के विनाश के लिए और धर्म की संस्थापना के लिए मैं युग-युग में प्रकट होता हूँ"।
यह इसलिए कहा गया क्योंकि भगवान का जन्म और कर्म दिव्य है, सांसारिक नहीं। जो इसे तत्त्व से जानता है, वह शरीर त्यागने के बाद मुझे प्राप्त होता है और फिर जन्म नहीं लेता।
यह उन मुनियों को कहा गया है जो राग, भय और क्रोध से मुक्त होकर मुझमें मन लगाए हुए हैं और मेरी शरण को प्राप्त हुए हैं।
ये वे भक्त हैं जिनके चित्त मुझमें लगे हैं, प्राण मुझमें स्थित हैं और जो परस्पर उपदेश देकर मेरे विषय में बातचीत करते हुए तृप्त होते हैं।
सदा युक्त रहने वाले उन भक्तों को योगक्षेम मैं स्वयं वहन करता हूँ और जो मुझे अनन्य भाव से भजते हैं, उनका मैं अन्तःकरण में वास करता हूँ।
आश्वासन है कि "यदि अत्यन्त दुराचारी भी अनन्य भाव से मेरी भक्ति करता है, तो वह साधु ही माना जाना चाहिए, क्योंकि उसने ठीक निश्चय कर लिया है"।
यह परिवर्तन है कि "वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और स्थिरचित्त होकर शान्ति को प्राप्त होता है। हे कौन्तेय! निश्चयपूर्वक जान ले कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता"।
यह वचन है कि "हे पार्थ! मेरा आश्रय लेकर जो भी जीव जन्म लेते हैं - चाहे वे पापयोनि वाले ही क्यों न हों - वे भी परमगति को प्राप्त होते हैं"।
ब्राह्मण, भक्त और सत्पुरुषों की श्रेष्ठता है - "ब्राह्मण, पुण्यशील और राजर्षि भक्त तो क्या कहने! इसलिए इस अनित्य और असार संसार में आकर मेरी भक्ति में तत्पर हो जा"।
यह आदेश है "मुझमें मन वाला हो, मेरा भक्त हो, मेरा पूजक हो और मुझे प्रणाम कर। इस प्रकार मुझमें आसक्त होकर मुझे ही परमगति जानकर तू मुझे ही प्राप्त होगा"।
रहस्य है कि "सब धर्मों का त्याग करके केवल मेरी शरण में आ जा। मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूंगा, शोक मत कर"।
यह उपदेश उससे न कहें "जो तपस्या नहीं करता, जो भक्ति नहीं करता, जो सेवा नहीं करना चाहता और न ही जो मुझसे द्वेष रखता है"।
फल है कि "जो इस परम गुह्य (गीता) का मेरे भक्तों में श्रद्धापूर्वक कीर्तन करेगा, वह निश्चय ही मुझे प्राप्त होगा"।
प्रशंसा है कि "मनुष्यों में कोई भी उससे बढ़कर मेरा प्रिय कर्ता नहीं होगा और उससे बढ़कर पृथ्वी पर मुझे प्रिय और कोई न होगा"।
पुण्य है कि "जो केवल ज्ञानयज्ञरूप से ही इस我们的 संवाद का अध्ययन करेगा, उससे भी मैं पूजित ही समझूंगा"।
वह लाभ पाता है कि "श्रद्धावान और दोषदृष्टि रहित मनुष्य जो इसे सुनता है, वह भी मुक्त होकर उन पुण्यलोकों को प्राप्त होता है, जहाँ सत्कर्म करने वाले जाते हैं"।
यह भगवान का अर्जुन से प्रश्न है - "हे पार्थ! क्या यह मेरा उपदेश तुमने एकचित्त होकर सुना? और हे धनञ्जय! अब तुम्हारा मोह नष्ट हुआ?"
अर्जुन का उत्तर है - "मेरा मोह नष्ट हो गया है, आपके कृपा से स्मृति प्राप्त हुई है। मैं स्थितप्रज्ञ हो गया हूँ और संशय से मुक्त हो गया हूँ। मैं आपके आदेश का पालन करूंगा"।
यह संजय का धृतराष्ट्र से कहना है - "वासुदेव और अर्जुन का ऐसा परम आश्चर्यमय और आनन्ददायक संवाद सुनकर मेरे रोमांच खड़े हो गए"।
महिमा है कि "जहाँ योगेश्वर कृष्ण और धनुर्धर अर्जुन हैं, वहाँ श्री (लक्ष्मी), विजय, विभूति और अचल नीति निश्चित रूप से रहती है"।
यह गीता का समापन मंत्र है। 'हरिः' ईश्वर का नाम है, 'ओम्' परब्रह्म का प्रतीक है और 'तत्सत्' सत्य का बोधक है। इस प्रकार गीता का सम्पूर्ण ज्ञान ईश्वर, ब्रह्म और सत्य का प्रतिपादन करता है।
यह भाव है कि "यह गीता ज्ञान श्रीकृष्ण को अर्पण है"। गीता का अध्ययन और प्रचार भगवान कृष्ण की सेवा माना जाता है।
यह ब्रह्मविद्या का प्रतीक है। 'ओम्' ईश्वर का, 'तत्' ब्रह्म का और 'सत्' सत्य का प्रतीक है। यह तीनों मिलकर परम सत्य का बोध कराते हैं।
यह घोषणा है कि "यह श्रीमद्भगवद्गीता उपनिषदों में है"। गीता को उपनिषदों का सार और ब्रह्मविद्या का प्रमुख ग्रंथ माना जाता है।
गीता का ब्रह्मविद्या और योगशास्त्र में उच्च स्थान है। इसे सभी वेदों और उपनिषदों का सार माना जाता है।
विशेषता है कि यह श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच हुआ संवाद है। इसमें गुरु और शिष्य का आदर्श संबंध दर्शाया गया है।
यह अठारहवें अध्याय की समाप्ति है। गीता के 18 अध्यायों का यह अंतिम श्लोक है जो गीता के महत्व को प्रतिपादित करता है।
संजय ने दिव्य दृष्टि से गीता का साक्षात्कार किया और धृतराष्ट्र को सुनाया। इस प्रकार गीता का प्रसार हुआ और यह ज्ञान संरक्षित हुआ।
यह मंत्र है कि जहाँ कृष्ण (ज्ञान) और अर्जुन (साधक) का मिलन होता है, वहाँ सभी प्रकार की समृद्धि स्वतः प्राप्त होती है।
यह विधान है कि "ओम् का उच्चारण करके यज्ञ, दान और तप का आरम्भ करना चाहिए"। ओम् के साथ किए गए कर्म फलविहीन हो जाते हैं।
अर्जुन के प्रश्नों ने गीता ज्ञान का मार्ग प्रशस्त किया। उनके संशयों और जिज्ञासाओं के कारण ही भगवान कृष्ण ने यह अमर ज्ञान दिया।
यह आशीर्वाद है कि भगवान स्वयं उपदेश दे रहे हैं। गीता का प्रत्येक शब्द भगवान के मुख से निकला हुआ है, इसलिए यह पवित्र और मोक्षदायी है।
धृतराष्ट्र ने संजय से पूछा "मेरे और पाण्डुओं के पुत्रों ने युद्ध के लिए एकत्रित होकर क्या किया?" इस प्रश्न से महाभारत और गीता का प्रारम्भ हुआ।
संजय को व्यासजी ने दिव्य दृष्टि प्रदान की थी, जिससे वह दूर बैठे-बैठे युद्ध का सब कुछ देख और सुन सकते थे। इसी के माध्यम से गीता हम तक पहुँची।
यह स्थान धर्मक्षेत्र और कुरुक्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध है। यहाँ धर्म और अधर्म का युद्ध हुआ और गीता का ज्ञान प्रकट हुआ।
ये वे योद्धा हैं जो युद्ध की इच्छा से एकत्रित हुए हैं। इनमें कौरव और पाण्डव दोनों सेनाएँ शामिल हैं जो धर्मयुद्ध के लिए तैयार हैं।
यह भेद है कौरवों और पाण्डवों के बीच। 'मामकाः' कौरव हैं (मेरे पुत्र) और 'पाण्डवाश्च' पाण्डव हैं। यही दोनों पक्ष युद्ध के लिए तैयार हैं।
यह धृतराष्ट्र की जिज्ञासा है - "हे संजय! मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने, जो युद्ध के लिए एकत्रित हुए हैं, क्या किया?"
यह दुर्योधन की प्रतिक्रिया है जब उसने पाण्डवों की सेना को देखा। वह अपने गुरु द्रोणाचार्य के पास गया और कहा "हे आचार्य! पाण्डवों की इस विशाल सेना को देखो"।
यह दुर्योधन का अहंकार है - "हमारी सेना अपर्याप्त (सीमित) है और पाण्डवों की सेना पर्याप्त (असीम) है"। वह अपनी सेना को कमजोर समझ रहा था।
दुर्योधन ने कहा कि "भीष्म और द्रोण के नेतृत्व में सब ओर से हमारी रक्षा की जाए"। यह उसकी भयभीत मनोदशा को दर्शाता है।
यह संकल्प है कि "जिस कारण से हमने युद्ध भूमि में धनुष का परित्याग नहीं किया है, उस कारण से हमें युद्ध करना ही होगा"।
अर्जुन का प्रथम प्रश्न है "हे अच्युत! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में ले चलो, जिससे मैं उन लोगों को देख सकूँ जो युद्ध के लिए उत्सुक हैं"।
यह अर्जुन की इच्छा है कि "मैं युद्ध करने वालों को देखना चाहता हूँ, जो इस महायुद्ध में मुझसे युद्ध करने आए हैं"।
अर्जुन की जिज्ञासा है कि "कौरव पक्ष में व्यवस्थित भीष्म आदि किसके साथ युद्ध कर रहे हैं?" वह युद्ध की तैयारी देखना चाहता था।
संजय का प्रथम वर्णन है कि "हे राजन! अर्जुन द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर भगवान कृष्ण उस महान रथ को दोनों सेनाओं के बीच में ले गए"।
गीता का प्रथम श्लोक है: "धृतराष्ट्र उवाच - धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः। मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय॥" इसका महत्व है कि यह गीता के प्रारम्भ का सूचक है और महाभारत युद्ध के संदर्भ को स्थापित करता है।
यह दुर्योधन की सेना का वर्णन है जो भीष्म और द्रोण के समीप खड़ी है, जयद्रथ रूपी जल से युक्त है और शल्य आदि अन्य महारथियों से सुरक्षित है।
अर्जुन ने हृषीकेश (कृष्ण) से कहा कि सेनाओं के मध्य खड़े होकर उन्होंने युद्ध के लिए उत्सुक अपने सम्बन्धियों को देखा।
अर्जुन के गात्र सीदने (शिथिल होने) और मुख सुखने का कारण था - अपने ही कुटुम्बियों और गुरुओं के साथ युद्ध करने का विचार।
अर्जुन का गाण्डीव धनुष हाथ से स्रंसित (खिसक) हो गया क्योंकि मोह के कारण उनके हाथ-पैर शिथिल हो गए थे और त्वचा जलने लगी थी।
अर्जुन का भाव था कि "मैं यहाँ खड़ा भी नहीं रह सकता, मैं भ्रमित हो रहा हूँ और मेरा मन विचलित हो रहा है"।
अर्जुन ने अशुभ निमित्त (लक्षण) देखे और कहा कि "मैं किसी भी शुभ की आशा नहीं करता, स्वजनों को मारकर हम राज्य और सुखों की इच्छा नहीं करते"।
अर्जुन का तर्क था कि "यद्यपि ये लोग (कौरव) कुलक्षयजनित दोष को नहीं देखते, फिर भी हमें तो यह दोष दिखाई देता है, इसलिए हमें युद्ध नहीं करना चाहिए"।
कुलक्षय (वंश का नाश) होने पर कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं, धर्म नष्ट होने पर सम्पूर्ण कुल में अधर्म छा जाता है और स्त्रियाँ भ्रष्ट हो जाती हैं।
वर्णसंकर (जाति संकर) उत्पन्न होने पर कुल और कुलधर्म का नाश करने वाले लोग नरकगामी होते हैं और पितरों का पिण्डोदक (तर्पण) भी नहीं मिलता।
कुलघ्नों (कुल का नाश करने वालों) को इन दोषों से कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं और सनातन कुलधर्म न रहने पर वे नरक में जाते हैं।
अर्जुन ने आश्चर्य व्यक्त किया कि "हाय! हम लोग महान पाप करने के लिए उत्सुक हैं, जो स्वजनों को मारकर राजसुख भोगना चाहते हैं"।
अर्जुन ने निर्णय किया कि "यदि अस्त्रशस्त्रों से रहित मुझे कौरव मार भी डालें तो वह मेरे लिए अधिक कल्याणकारी होगा"।
अर्जुन ने हृषीकेश (कृष्ण) से इस प्रकार कहकर "मैं युद्ध नहीं करूंगा" कहा और युद्ध भूमि में मौन होकर बैठ गए।
हृषीकेश (कृष्ण) ने शोक करते हुए अर्जुन से कहा "हे अर्जुन! तुझे इस अयोग्य कायरता से उत्पन्न हुआ यह मोह कैसे प्राप्त हुआ?"
भगवान ने अर्जुन से कहा "हे पार्थ! तू क्लैब्य (कायरता) को मत प्राप्त हो, यह तेरे लिए उचित नहीं है, हे परन्तप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो"।
अर्जुन का दूसरा प्रश्न है "हे मधुसूदन! युद्ध में भीष्म और द्रोण जैसे पूजनीय लोगों को मैं बाणों से कैसे मारूंगा?"
अर्जुन की दुविधा थी कि "महानुभाव गुरुओं को न मारकर ही भिक्षा का अन्न खाना उत्तम है, गुरुओं को मारकर इस लोक में रक्त से सने हुए भोगों को भोगूं"।
अर्जुन का संशय था कि "हम नहीं जानते कि हमारे लिए इनमें से क्या श्रेष्ठ है - हम उन्हें मारें या वे हमें मारें? जिन्हें मारकर हम जीना नहीं चाहते"।
अर्जुन का विकल्प था कि "यदि लोभ से मोहित हुए इन कौरवों को अपने कुल और स्नेह का ज्ञान न हो तो हमें युद्ध नहीं करना चाहिए"।
अर्जुन ने युद्धभूमि में इस प्रकार कहकर रथ पर बैठकर धनुष-बाण त्याग दिए और शोक से युक्त मन से मौन हो गए।
संजय ने धृतराष्ट्र से कहा "हे राजन! उस प्रकार कृपा से आविष्ट और शोक से भरे हुए अर्जुन को देखकर मधुसूदन (कृष्ण) ने ये वचन कहे"।
भगवान का प्रथम उपदेश है "तू इस अयोग्य, क्षुद्र और स्वर्ग को न देने वाले कायरता के मोह को त्याग दे और युद्ध के लिए खड़ा हो"।
भगवान का प्रश्न है "हे अर्जुन! तुझे इस संकटकाल में इस प्रकार का मोह कहाँ से प्राप्त हुआ? यह आर्यों को शोभा नहीं देता, स्वर्ग की प्राप्ति में बाधक है और कीर्ति को नष्ट करने वाला है"।
भगवान का आदेश है "हे पार्थ! तू कायरता को मत प्राप्त हो, यह तेरे लिए उचित नहीं है, हे कुन्तीपुत्र! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो"।
अर्जुन का तीसरा प्रश्न है "हे मधुसूदन! युद्ध में भीष्म और द्रोण जैसे पूज्य लोगों के समक्ष खड़े होकर मैं बाणों से उन्हें कैसे मारूंगा?"
अर्जुन का विचार था कि "महानुभाव गुरुओं को न मारकर ही भिक्षा का अन्न खाना उत्तम है, गुरुओं को मारकर इस लोक में रक्त से सने हुए भोगों को भोगना उचित नहीं"।
अर्जुन की जिज्ञासा थी कि "हम नहीं जानते कि हमारे लिए इनमें से क्या श्रेष्ठ है - हम उन्हें मारें या वे हमें मारें? जिन्हें मारकर हम जीना नहीं चाहते"।
अर्जुन का स्वीकार है कि "मैं कार्पण्य (दीनता) के दोष से युक्त स्वभाव वाला होकर धर्म संशय में पड़ गया हूँ, इसलिए आपसे पूछता हूँ कि मेरे लिए क्या श्रेयस्कर है?"
अर्जुन का दुख था कि "मैं नहीं देखता कि इस शोक को, जो मेरी इन्द्रियों को शुष्क कर रहा है, इच्छित राज्य और स्वर्गादि का लाभ भी दूर करेगा"।
अर्जुन ने हृषीकेश (कृष्ण) से इस प्रकार कहकर "मैं युद्ध नहीं करूंगा" कहा और मौन होकर बैठ गए।
हृषीकेश (कृष्ण) प्रहसन्निव (मानो हँसते हुए) बोले क्योंकि अर्जुन का मोह उन्हें अज्ञानपूर्ण लगा और वे उसे ज्ञान देकर मोहमुक्त करना चाहते थे।
भगवान का तर्क है कि "तू न शोक करने योग्यों के लिए शोक कर रहा है और ज्ञान की बातें कर रहा है, परन्तु ज्ञानी पुरुष न तो जीवों के लिए और न मरे हुओं के लिए शोक करते हैं"।
यह आत्मा के नित्यत्व का सिद्धांत है - "न मैं कभी नहीं था, न तू था, न ये सब राजा लोग थे और न आगे से हम सब नहीं रहेंगे"।
भगवान ने उदाहरण दिया कि "जिस प्रकार इस शरीर में देही (आत्मा) का बाल्य, यौवन और वार्धक्य होता है, उसी प्रकार दूसरे शरीर की प्राप्ति होती है, इसमें बुद्धिमान पुरुष मोह नहीं करते"।
भगवान ने कहा "हे कौन्तेय! मात्राओं (इन्द्रिय विषयों) के स्पर्शमात्र से शीत-उष्ण, सुख-दुःख होते हैं, वे आने-जाने वाले हैं, इसलिए हे भारत! तू उन्हें सहन कर"।
भगवान ने कहा "जिस पुरुष को ये (सुख-दुःख) व्यथित नहीं करते, जो सुख-दुःख में समान और दृढ़ है, वह पुरुष अमरत्व के लिए योग्य है"।
यह तत्त्वज्ञान है कि "असत् (असत्य) की सत्ता नहीं है और सत् (सत्य) की असत्ता नहीं है, इन दोनों का तत्त्व ज्ञानियों ने देखा है"।
भगवान ने कहा "उस अविनाशी को तू जान, जिससे यह सम्पूर्ण जगत व्याप्त है, इस अविनाशी का विनाश किसी के द्वारा नहीं किया जा सकता"।
यह सत्य है कि "ये शरीर अन्तवान (नाशवान) हैं, नित्यस्वरूप उसको कहते हैं जो इन देहों का स्वामी है, इसलिए हे भारत! तू युद्ध कर"।
भगवान ने कहा "जो इस आत्मा को हन्ता मानता है और जो इसे मरने वाला मानता है, उन दोनों को ज्ञान नहीं है, यह न तो मारता है और न मरता है"।
आत्मा का स्वरूप है कि "यह न कभी जन्मता है, न मरता है, न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला है, यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता"।
भगवान ने दृष्टान्त दिया कि "जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने शरीरों को त्यागकर नए शरीरों को प्राप्त होता है"।
भगवान ने कहा "इसे शस्त्र नहीं काटते, अग्नि नहीं जलाती, जल नहीं भिगोता और वायु नहीं सुखाती क्योंकि आत्मा अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य और अशोष्य है"।
आत्मा के गुण हैं - "यह अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य और अशोष्य है तथा नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर और सनातन है"।
भगवान ने कहा "यह आत्मा अव्यक्त और अचिन्त्य है, इसलिए तू शोक न कर, भले ही तू इसे अव्यक्त और अचिन्त्य मानता है"।
भगवान ने कहा "और यदि तू इस आत्मा को सदा जन्मने वाला और सदा मरने वाला मानता है, तो भी हे महाबाहो! तुझे शोक नहीं करना चाहिए"।
भगवान ने कहा "जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु निश्चित है और जिसकी मृत्यु हुई है, उसका जन्म निश्चित है, इसलिए इस अटल विधि के विषय में तुझे शोक नहीं करना चाहिए"।
भगवान ने कहा "हे भारत! सब भूत (प्राणी) अव्यक्त (अप्रकट) से उत्पन्न होकर व्यक्त (प्रकट) में स्थित होते हैं और मरने पर पुनः अव्यक्त में ही चले जाते हैं, फिर इनके लिए शोक क्यों?"
भगवान ने कहा "कोई आश्चर्य के समान इस आत्मा को देखता है, कोई आश्चर्यपूर्वक इसका वर्णन करता है, कोई आश्चर्य से सुनता है और कोई सुनकर भी इसे नहीं जानता"।
भगवान का निष्कर्ष है कि "यह देही (आत्मा) सदा अवध्य (न मारने योग्य) है, हे भारत! इसलिए तू सब भूतों के लिए शोक न कर"।
भगवान ने कहा कि "अपने स्वधर्म को भी देखकर तुझे युद्ध करने में संकोच नहीं करना चाहिए, क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मयुद्ध से बढ़कर और कोई कल्याणकारी कर्म नहीं है"।
भगवान ने कहा "हे पार्थ! यदृच्छया (अकस्मात) प्राप्त हुआ यह खुला हुआ स्वर्ग का द्वार है, क्योंकि धर्मयुद्ध में मारा गया क्षत्रिय स्वर्ग को प्राप्त होता है"।
भगवान ने कहा "और यदि तू इस धर्मयुद्ध को नहीं करेगा, तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा"।
भगवान ने कहा "सब भूत (लोग) तेरी कीर्ति की निन्दा करेंगे और अकीर्ति (बदनामी) मानने वाले पुरुष के लिए मृत्यु से भी बढ़कर दुःखदायी है"।
भगवान ने कहा "महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ समझेंगे और जिन्हें तू पहले सम्मान देता था, वे तुझे तुच्छ समझेंगे"।
भगवान ने कहा "तेरे विषय में अवाच्य (कहने योग्य नहीं) वचन बहुत से कहेंगे और तेरी निन्दा करेंगे, तेरे लिए इन कष्टों से बढ़कर और क्या होगा?"
भगवान ने कहा "हे अर्जुन! तू युद्ध में मारा गया तो स्वर्ग को प्राप्त होगा और जीता तो पृथ्वी का सुख भोगेगा, इसलिए उठ और निश्चय करके युद्ध कर"।
भगवान ने कहा "सुख-दुःख, लाभ-अलाभ, जय-पराजय को समान समझकर फिर युद्ध के लिए तैयार हो, ऐसा करने से तू पाप को प्राप्त नहीं होगा"।
भगवान ने कहा "हे पार्थ! यह तुझे सांख्य (ज्ञान) के विषय में कही गई है, अब कर्मयोग के विषय में सुन, जिस विधि से आसक्ति को त्यागकर कर्म करेगा, उससे तू कर्मबन्धन से मुक्त हो जाएगा"।
यह गीता का प्रसिद्ध सिद्धांत है कि "कर्म करने में ही तेरा अधिकार है, फलों में कभी नहीं, इसलिए तू कर्मफल का हेतु मत बन और कर्म न करने में भी आसक्ति मत रख"।
भगवान ने आदेश दिया "हे अर्जुन! योग में स्थित होकर कर्म कर और आसक्ति को त्याग कर, सफलता-असफलता में समान बुद्धि वाला हो, समत्व को ही योग कहते हैं"।
भगवान ने कहा "बुद्धियोग से रहित कर्म हीन है, हे धनञ्जय! इसलिए तू बुद्धियोग में स्थित होकर कर्म कर, फल की इच्छा करने वाले पुरुष यज्ञ आदि कर्मों के लिए बंधन को प्राप्त होते हैं"।
भगवान ने कहा "बुद्धियुक्त पुरुष इस लोक में ही पुण्य-पाप दोनों को त्याग देता है, इसलिए तू योग में स्थित होकर कर्म कर, क्योंकि योग ही कुशलता है"।
भगवान ने कहा "बुद्धियुक्त ज्ञानीजन कर्मजनित फल को त्याग कर जन्मरूपी बंधन से मुक्त हो जाते हैं और निर्दोष पद को प्राप्त होते हैं"।
भगवान ने कहा "जब तेरा मन मोहरूपी समस्त कलिल (गहन जंगल) को पार कर जाएगा, तब तू प्राप्त और अप्राप्त में समान भाव को प्राप्त हो जाएगा"।
भगवान ने दृष्टांत दिया कि "जिस प्रकार समुद्र में स्थित रहने पर उदपान (तालाब) के जल से कोई प्रयोजन नहीं रह जाता, उसी प्रकार सभी वेदों का तत्त्व जानने वाले ब्राह्मण को अन्य सभी ज्ञानों से कोई प्रयोजन नहीं रह जाता"।
इसका व्यावहारिक अर्थ है कि मनुष्य को अपना कर्म पूर्ण निष्ठा और ईमानदारी से करना चाहिए, लेकिन परिणाम की चिंता नहीं करनी चाहिए। सफलता-असफलता ईश्वर के हाथ में है।
भगवान ने आज्ञा दी "तू नियत कर्म कर, क्योंकि कर्म न करने से कर्म करना श्रेष्ठ है और शरीर-निर्वाह भी नहीं हो सकता"।
भगवान ने कहा "यज्ञ के अर्थ से अन्यत्र (यज्ञ के सिवा) किए गए कर्म से यह संसार कर्मबन्धन में बंधता है, इसलिए हे कौन्तेय! आसक्ति को त्याग कर यज्ञरूप कर्म कर"।
भगवान ने कहा "प्रजा की सृष्टि करते समय प्रजापति ब्रह्मा ने यज्ञ के साथ कहा कि यज्ञ से तुम लोगों की वृद्धि हो और यह यज्ञ तुम्हारी कामनाओं को पूर्ण करने वाला हो"।
भगवान ने कहा "इस यज्ञ से देवताओं का भावना (पोषण) करो और वे देवता तुम्हारा भावना (पोषण) करें, इस प्रकार परस्पर भावना करने से परम श्रेय की प्राप्ति होगी"।
भगवान ने कहा "यज्ञ से तृप्त देवता तुम्हें इष्ट भोग प्रदान करेंगे, जो उनके दिए हुए भोगों को नहीं खाता, वह चोर है"।
भगवान ने कहा "यज्ञशिष्ट (यज्ञ से बचे हुए) अन्न को खाने वाले सन्त पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं, परन्तु जो अपने लिए ही पकाते और खाते हैं, वे पाप को भोगते हैं"।
भगवान ने कहा "अन्न से भूत (प्राणी) उत्पन्न होते हैं, अन्न वर्षा से उत्पन्न होता है, वर्षा यज्ञ से उत्पन्न होती है और यज्ञ कर्म से उत्पन्न होता है"।
भगवान ने कहा "कर्म को ब्रह्म से उत्पन्न हुआ जान और ब्रह्म को अक्षर से उत्पन्न हुआ जान, इसलिए सर्वव्यापी ब्रह्म सदा यज्ञ में स्थित है"।
भगवान ने कहा "हे पार्थ! इस प्रकार प्रवर्तित हुए चक्र को जो मनुष्य मोह के कारण नहीं चलाता, वह पापी, इन्द्रियों में आसक्त और व्यर्थ जीवन व्यतीत करने वाला है"।
भगवान ने कहा "परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रत रहता है और आत्मा से तृप्त रहता है तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट रहता है, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है"।
भगवान ने कहा "उस पुरुष का किसी वस्तु के लिए कर्म करने से कोई प्रयोजन नहीं है और कर्म न करने से भी कोई प्रयोजन नहीं है और उसे समस्त भूतों में कोई आश्रय नहीं है"।
भगवान ने कहा "इसलिए तू आसक्ति रहित होकर सदा कर्तव्य कर्म कर, क्योंकि आसक्ति रहित होकर कर्म करने वाला पुरुष परमात्मा को प्राप्त होता है"।
भगवान ने उदाहरण दिया कि "जनक आदि कर्म से ही सिद्धि को प्राप्त हुए हैं, इसलिए लोकसंग्रह के लिए भी तुझे कर्म करना चाहिए"।
भगवान ने कहा "जो-जो श्रेष्ठ पुरुष करता है, वही-वही अन्य पुरुष भी करते हैं, वह जो आदर्श प्रस्तुत करता है, उसका संसार अनुसरण करता है"।
भगवान ने कहा "हे पार्थ! तीनों लोकों में मेरा कोई कर्तव्य नहीं है, न मुझे प्राप्त करने योग्य कोई वस्तु शेष है, फिर भी मैं कर्म में स्थित हूँ"।
भगवान ने कहा "यदि मैं सावधानीपूर्वक कर्म न करूं तो सब मनुष्य मेरे ही मार्ग का अनुसरण करें और ये सब लोक नष्ट हो जाएं"।
भगवान ने कहा "यदि मैं कर्म न करूं तो ये सब लोक नष्ट हो जाएंगे और मैं वर्णसंकर उत्पन्न करूंगा, जिससे प्रजाओं का नाश हो जाएगा"।
भगवान ने कहा "हे भारत! जैसे अविद्वान पुरुष कर्म में आसक्त होकर कर्म करते हैं, वैसे ही विद्वान पुरुष लोकसंग्रह के लिए आसक्ति रहित होकर कर्म करें"।
भगवान ने कहा "विद्वान पुरुष को अज्ञानियों की बुद्धि में भेद उत्पन्न नहीं करना चाहिए, बल्कि योगयुक्त होकर सब कर्मों को करते हुए उन्हें भी कर्म में प्रवृत्त करना चाहिए"।
भगवान ने कहा "समस्त कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा ही किए जाते हैं, परन्तु अहंकार से मोहित आत्मा 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा मानती है"।
भगवान ने कहा "हे महाबाहो! तत्त्व को जानने वाला पुरुष इन्द्रियों और इन्द्रियों के विषयों में व्यापार करने वाली गुणों की विभिन्न प्रवृत्तियों में स्थित होकर 'गुण ही गुणों में व्यापार कर रहे हैं' ऐसा मानता है, इसलिए आसक्त नहीं होता"।
भगवान ने कहा "जो मोह से मुक्त हैं, वे 'गुण ही गुणों में व्यापार कर रहे हैं' ऐसा जानकर आसक्त नहीं होते"।
भगवान ने कहा "गुणों से भिन्न अन्य को कर्ता न देखकर और गुणों के व्यापार को भलीभाँति जानकर वह परमात्मपद में स्थित हो जाता है"।
भगवान ने कहा "जब यह आत्मा गुणों के द्वारा उत्पन्न हुए सब मोहों से पूर्णतया मुक्त हो जाती है, तब गुणों के व्यापार में स्थित होकर भी उदासीन रहती है"।
भगवान ने कहा "प्रकृति से ही सब कर्म होते हैं, जो आत्मा को गुणों से मुक्त और तत्त्वज्ञान से युक्त जानता है, वह 'मैं करता हूँ' ऐसा नहीं मानता"।
भगवान ने कहा "हे अर्जुन! जो लोग इस मेरे मत का नित्य अनुष्ठान करते हैं, श्रद्धा और अनासक्ति से युक्त होकर, वे भी कर्मबन्धन से मुक्त हो जाते हैं"।
भगवान ने कहा "जो अन्य देवताओं के भक्त हैं, वे भी उन्हीं देवताओं को भजते हुए मुझे ही प्राप्त होते हैं, क्योंकि मैं ही सब यज्ञों का स्वामी हूँ"।
भगवान ने कहा "परन्तु उन देवताओं के भक्तों का फल अन्तवान (नाशवान) है, देवताओं को भजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मुझे प्राप्त होते हैं"।
भगवान ने कहा "अविद्वान लोग मुझ अव्यक्त को व्यक्त रूप में प्राप्त हुआ मानते हैं, क्योंकि वे मेरे परम अव्यक्त स्वरूप को नहीं जानते"।
भगवान ने कहा "जो अन्तःसुख (आंतरिक सुख) वाला, अन्तराराम (आत्मा में रमण करने वाला) और अन्तर्ज्योति (आंतरिक ज्योति वाला) है, वह योगी ब्रह्मनिर्वाण को प्राप्त होकर ब्रह्म में लीन हो जाता है"।
भगवान ने कहा "हे अर्जुन! जो पुरुष प्रयत्नपूर्वक यत्न करता है, शुद्धात्मा है, विजितेन्द्रिय है और सब भूतों के प्रति हितैषी है, वह मुझे प्राप्त होता है"।
भगवान ने कहा "जो ज्ञान और विज्ञान से तृप्तात्मा है, कूटस्थ (अविनाशी) है और जितेन्द्रिय है, उसके लिए मिट्टी, पत्थर और सोना समान है"।
भगवान ने कहा "जो शत्रु और मित्र में, मान और अपमान में, शीत और उष्ण में, सुख और दुःख में समान है और निरासक्त है, वह मुझे अत्यंत प्रिय है"।
भगवान ने कहा "संन्यास और कर्मयोग - इन दोनों से मोक्ष होता है, परन्तु इन दोनों में कर्मयोग संन्यास से श्रेष्ठ है"।
भगवान ने कहा "जो न द्वेष करता है और न कामना करता है, वह नित्यसंन्यासी जानना चाहिए, क्योंकि वह सब बंधनों से मुक्त है"।
भगवान ने कहा "कर्मों के न आरम्भ करने से निष्कामता नहीं होती और संन्यास से भी सिद्धि नहीं होती"।
भगवान ने कहा "जो मन से इन्द्रियों को वश में करके कर्मेन्द्रियों द्वारा कर्मयोग करता है, वह श्रेष्ठ है"।
भगवान ने कहा "तू नियत कर्म कर, क्योंकि कर्म न करने से कर्म करना श्रेष्ठ है, कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी नहीं हो सकता"।
भगवान ने कहा "यज्ञ के अर्थ से इतर किए गए कर्म से यह संसार बंधता है, इसलिए हे कौन्तेय! आसक्ति को त्यागकर यज्ञरूप कर्म कर"।
भगवान ने कहा "प्रजापति ब्रह्मा ने प्रजा की सृष्टि करते समय यज्ञ के साथ कहा कि यज्ञ से तुम लोगों की वृद्धि हो और यह यज्ञ तुम्हारी कामनाओं को पूर्ण करने वाला हो"।
भगवान ने कहा "इस यज्ञ से देवताओं का पोषण करो और वे देवता तुम्हारा पोषण करें, इस प्रकार परस्पर पोषण करने से परम श्रेय की प्राप्ति होगी"।
भगवान ने कहा "यज्ञ से तृप्त देवता तुम्हें इष्ट भोग प्रदान करेंगे, जो उनके दिए हुए भोगों को नहीं खाता, वह चोर है"।
भगवान ने कहा "यज्ञशिष्ट (यज्ञ से बचे हुए) अन्न को खाने वाले सन्त पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं, परन्तु जो अपने लिए ही पकाते और खाते हैं, वे पाप को भोगते हैं"।
भगवान ने कहा "अन्न से भूत (प्राणी) उत्पन्न होते हैं, अन्न वर्षा से उत्पन्न होता है, वर्षा यज्ञ से उत्पन्न होती है और यज्ञ कर्म से उत्पन्न होता है"।
भगवान ने कहा "कर्म को ब्रह्म से उत्पन्न हुआ जान और ब्रह्म को अक्षर से उत्पन्न हुआ जान, इसलिए सर्वव्यापी ब्रह्म सदा यज्ञ में स्थित है"।
भगवान ने कहा "हे पार्थ! इस प्रकार प्रवर्तित हुए चक्र को जो मनुष्य मोह के कारण नहीं चलाता, वह पापी, इन्द्रियों में आसक्त और व्यर्थ जीवन व्यतीत करने वाला है"।
भगवान ने कहा "परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रत रहता है और आत्मा से तृप्त रहता है तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट रहता है, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है"।
भगवान ने कहा "उस पुरुष का किसी वस्तु के लिए कर्म करने से कोई प्रयोजन नहीं है और कर्म न करने से भी कोई प्रयोजन नहीं है और उसे समस्त भूतों में कोई आश्रय नहीं है"।
भगवान ने कहा "इसलिए तू आसक्ति रहित होकर सदा कर्तव्य कर्म कर, क्योंकि आसक्ति रहित होकर कर्म करने वाला पुरुष परमात्मा को प्राप्त होता है"।
भगवान ने उदाहरण दिया कि "जनक आदि कर्म से ही सिद्धि को प्राप्त हुए हैं, इसलिए लोकसंग्रह के लिए भी तुझे कर्म करना चाहिए"।
भगवान ने कहा "जो-जो श्रेष्ठ पुरुष करता है, वही-वही अन्य पुरुष भी करते हैं, वह जो आदर्श प्रस्तुत करता है, उसका संसार अनुसरण करता है"।
भगवान ने कहा "हे पार्थ! तीनों लोकों में मेरा कोई कर्तव्य नहीं है, न मुझे प्राप्त करने योग्य कोई वस्तु शेष है, फिर भी मैं कर्म में स्थित हूँ"।
भगवान ने कहा "यदि मैं सावधानीपूर्वक कर्म न करूं तो सब मनुष्य मेरे ही मार्ग का अनुसरण करें और ये सब लोक नष्ट हो जाएं"।
भगवान ने कहा "यदि मैं कर्म न करूं तो ये सब लोक नष्ट हो जाएंगे और मैं वर्णसंकर उत्पन्न करूंगा, जिससे प्रजाओं का नाश हो जाएगा"।
भगवान ने कहा "हे भारत! जैसे अविद्वान पुरुष कर्म में आसक्त होकर कर्म करते हैं, वैसे ही विद्वान पुरुष लोकसंग्रह के लिए आसक्ति रहित होकर कर्म करें"।
भगवान ने कहा "विद्वान पुरुष को अज्ञानियों की बुद्धि में भेद उत्पन्न नहीं करना चाहिए, बल्कि योगयुक्त होकर सब कर्मों को करते हुए उन्हें भी कर्म में प्रवृत्त करना चाहिए"।
भगवान ने कहा "समस्त कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा ही किए जाते हैं, परन्तु अहंकार से मोहित आत्मा 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा मानती है"।
भगवान ने कहा "हे महाबाहो! तत्त्व को जानने वाला पुरुष इन्द्रियों और इन्द्रियों के विषयों में व्यापार करने वाली गुणों की विभिन्न प्रवृत्तियों में स्थित होकर 'गुण ही गुणों में व्यापार कर रहे हैं' ऐसा मानता है, इसलिए आसक्त नहीं होता"।
भगवान ने कहा "मेरी योनि महद्ब्रह्म है, उसी में मैं गर्भ संस्थापन करता हूँ और उसी से सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति होती है"।
भगवान ने कहा "हे कौन्तेय! समस्त योनियों में जो-जो आत्मा हैं, उनकी उत्पत्ति महद्ब्रह्मरूपी मेरी योनि से ही हुई है और मैं ही उनका पिता हूँ"।
भगवान ने कहा "सत्त्व, रज और तम - ये प्रकृति के तीन गुण हैं, ये नित्य और अविनाशी गुण सम्पूर्ण जगत को बांधने वाले हैं"।
भगवान ने कहा "सत्त्व गुण सुख में, रजोगुण कर्म में और तमोगुण प्रमाद में संलग्न करता है, इन्हीं से सम्पूर्ण प्राणी बंधे हुए हैं"।
भगवान ने कहा "रजोगुण को रागात्मक और तृष्णा उत्पन्न करने वाला जान, वह आत्मा को कर्म में बांधता है"।
भगवान ने कहा "तमोगुण को अज्ञान से उत्पन्न हुआ जान, वह सब प्राणियों को प्रमाद, आलस्य और निद्रा में बांधता है"।
भगवान ने कहा "सत्त्वगुण सुख में, रजोगुण कर्म में और तमोगुण ज्ञान को ढककर प्रमाद में बांधता है"।
भगवान ने कहा "हे भरतवंशी! रजोगुण कर्म में बांधता है और तमोगुण प्रमाद में बांधता है, परन्तु सत्त्वगुण सुख में बांधता है"।
भगवान ने कहा "सत्त्व से ज्ञान, रज से लोभ और तम से प्रमाद, मोह तथा अज्ञान की उत्पत्ति होती है"।
भगवान ने कहा "सत्त्वस्थ पुरुष ऊपर (देवलोक) को, राजस पुरुष मनुष्यलोक को और तामस पुरुष नीचे (नरक) को जाते हैं"।
भगवान ने कहा "गुणों से भिन्न अन्य को कर्ता न देखकर और गुणों के व्यापार को भलीभाँति जानकर वह परमात्मपद में स्थित हो जाता है"।
भगवान ने कहा "जब यह देही इन तीनों गुणों को अतीत हो जाता है, जिनसे शरीर उत्पन्न होता है, तब जन्म-मरण-रूप दुःखों से मुक्त होकर अमृतपद को प्राप्त होता है"।
अर्जुन ने पूछा "हे प्रभु! किन लक्षणों से सत्त्व, रज और तम गुणों में स्थित पुरुष को जाना जाता है? और वह किस प्रकार इन्हें लांघता है?"
भगवान ने कहा "हे पाण्डव! प्रकाश, प्रवृत्ति और मोह - जब ये उत्पन्न होते हैं, तब जानना चाहिए कि ये सत्त्व, रज और तम गुण हैं"।
भगवान ने कहा "जब सत्त्वगुण की प्रधानता होती है, तब शरीर में प्रकाश और स्वास्थ्य की वृद्धि होती है"।
भगवान ने कहा "हे कुरुनन्दन! लोभ, प्रवृत्ति, कर्मों का आरम्भ, चंचलता और अतृप्ति - ये रजोगुण के बढ़ने पर उत्पन्न होते हैं"।
भगवान ने कहा "अप्रकाश, अप्रवृत्ति, प्रमाद और मोह - ये तमोगुण के बढ़ने पर उत्पन्न होते हैं"।
भगवान ने कहा "जब तमोगुण की प्रधानता होती है, तब अज्ञान, आलस्य और निद्रा की वृद्धि होती है"।
भगवान ने कहा "सत्त्वगुणी कर्म के फल को शुद्ध और सुखरूप कहते हैं, रजोगुणी कर्म के फल को दुःखरूप और तमोगुणी कर्म के फल को अज्ञानरूप कहते हैं"।
भगवान ने कहा "सत्त्व से ज्ञान, रज से लोभ और तम से प्रमाद, मोह तथा अज्ञान की उत्पत्ति होती है"।
भगवान ने कहा "सत्त्व में स्थित पुरुष ऊपर को, रज में स्थित मध्य को और तम में स्थित पुरुष अधो गति को प्राप्त होते हैं"।
भगवान ने कहा "जब द्रष्टा गुणों से भिन्न अन्य को कर्ता नहीं देखता और गुणों के व्यापार को जानता है, तब वह मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है"।
भगवान ने कहा "जब यह आत्मा इन तीनों गुणों को लांघ जाता है, जिनसे यह शरीर धारण करता है, तब जन्म-मरण-रूप दुःखों से मुक्त होकर अमृत को प्राप्त होता है"।
अर्जुन ने पूछा "हे प्रभु! किन लक्षणों से सत्त्व, रज और तम गुणों में स्थित पुरुष को पहचाना जाता है? और वह किस प्रकार इन गुणों को लांघता है?"
अर्जुन का अंतिम प्रश्न था "हे प्रभु! गुणातीत पुरुष के लक्षण क्या हैं? उसका आचरण कैसा है? और वह इन तीनों गुणों को किस प्रकार लांघता है?"