अध्याय 1, श्लोक 12: भीष्म पितामह द्वारा सिंहनाद करके कौरव सेना का उत्साहवर्धन
अध्याय 1: विषाद योग
संजय
धृतराष्ट्र
भीष्म द्वारा युद्ध की औपचारिक शुरुआत
इस श्लोक में संजय धृतराष्ट्र को बताते हैं कि भीष्म पितामह ने दुर्योधन के हर्ष और उत्साह को बढ़ाने के लिए जोरदार सिंहनाद किया और अपना शंख बजाया। यह युद्ध की औपचारिक शुरुआत का संकेत था और कौरव सेना के मनोबल को बढ़ाने का एक सशक्त तरीका था।
विस्तृत व्याख्या:
• तस्य सञ्जनयन्हर्षं - उसके (दुर्योधन के) हर्ष को बढ़ाते हुए। भीष्म ने दुर्योधन के मन में उत्पन्न हुई चिंता को दूर करने और उसके उत्साह को बढ़ाने के लिए यह कार्य किया।
• कुरुवृद्धः पितामहः - कुरुवंश के वृद्ध पितामह। यह भीष्म की वरिष्ठता और सम्मानित स्थिति को दर्शाता है।
• सिंहनादं विनद्योच्चैः - ऊँचे स्वर में सिंहनाद करके। सिंहनाद योद्धाओं में उत्साह और साहस जगाने का एक परंपरागत तरीका था।
• शंखं दध्मौ प्रतापवान् - प्रतापवान (भीष्म) ने शंख बजाया। शंखध्वनि युद्ध की औपचारिक घोषणा और सेना को आक्रमण का संकेत थी।
मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण: भीष्म का यह कार्य एक सुनियोजित मनोवैज्ञानिक रणनीति थी। दुर्योधन के मन में पांडव सेना को देखकर उत्पन्न हुई चिंता और भय को दूर करने के लिए भीष्म ने इस सिंहनाद और शंखध्वनि के माध्यम से कौरव सेना में नया उत्साह और आत्मविश्वास भर दिया। यह एक अनुभवी सेनापति की कुशलता को दर्शाता है।
यह श्लोक महाभारत युद्ध के उस ऐतिहासिक क्षण को दर्शाता है जब भीष्म पितामह ने औपचारिक रूप से युद्ध की शुरुआत की घोषणा की।
सिंहनाद का महत्व: प्राचीन भारतीय युद्ध परंपरा में सिंहनाद (शेर की दहाड़ के समान आवाज) योद्धाओं में उत्साह और साहस भरने का एक परंपरागत तरीका था। यह शत्रु के मन में भय उत्पन्न करने और अपनी सेना का मनोबल बढ़ाने के लिए किया जाता था।
शंखध्वनि का महत्व: शंख बजाना प्राचीन भारत में युद्ध की औपचारिक घोषणा का तरीका था। प्रत्येक महान योद्धा के अपने विशेष नाम वाले शंख होते थे जिनकी ध्वनि से उनकी पहचान होती थी। शंखध्वनि सेना को आक्रमण का संकेत देती थी और युद्ध का वातावरण निर्मित करती थी।
भीष्म की भूमिका: भीष्म पितामह न केवल कौरव सेना के सर्वोच्च सेनापति थे, बल्कि वे कुरुवंश के सबसे सम्मानित और अनुभवी सदस्य भी थे। उनकी उपस्थिति और कार्यवाही का सेना पर गहरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता था।
युद्ध संस्कृति: प्राचीन भारतीय युद्ध संस्कृति में युद्ध के नियम और परंपराएँ निर्धारित थीं। शंखध्वनि और सिंहनाद इन परंपराओं का हिस्सा थे जो युद्ध को केवल एक हिंसक संघर्ष नहीं, बल्कि एक धार्मिक और सांस्कृतिक अनुष्ठान बनाते थे।
मनोवैज्ञानिक युद्ध: भीष्म का यह कार्य मनोवैज्ञानिक युद्ध का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। उन्होंने न केवल दुर्योधन की चिंता दूर की, बल्कि पूरी कौरव सेना में नया जोश और आत्मविश्वास भर दिया।
यह श्लोक युद्ध की औपचारिक शुरुआत का प्रतीक है। अब अन्य योद्धा भी अपने-अपने शंख बजाएंगे और युद्ध का वातावरण और अधिक तीव्र हो जाएगा।
श्लोक 11: दुर्योधन द्वारा भीष्म को सेना की रक्षा का आदेश देना।
श्लोक 13: कौरव सेना द्वारा युद्ध की तैयारी और शंखध्वनि करना।
श्लोक 14-15: पांडव सेना द्वारा शंखध्वनि करके युद्ध के लिए तैयार होना।
श्लोक 16-18: अर्जुन द्वारा युद्ध भूमि में अपने संबंधियों को देखकर विषाद व्यक्त करना।
श्लोक 19-20: अर्जुन का श्रीकृष्ण से रथ को दोनों सेनाओं के बीच में ले जाने का अनुरोध करना।
श्लोक 21-23: अर्जुन द्वारा युद्ध भूमि में अपने संबंधियों को देखकर मोह और दुःख व्यक्त करना।