अध्याय 1, श्लोक 19: अर्जुन का कौरव सेना को देखना और श्रीकृष्ण से अनुरोध
अध्याय 1: विषाद योग
संजय
धृतराष्ट्र
अर्जुन द्वारा कौरव सेना का अवलोकन और श्रीकृष्ण से अनुरोध
इस श्लोक में संजय धृतराष्ट्र को बताते हैं कि अर्जुन ने युद्ध के लिए व्यवस्थित रूप से खड़ी कौरव सेना को देखा और जब शस्त्रों का संघर्ष प्रारंभ होने वाला था, तब उन्होंने अपना धनुष उठाया और श्रीकृष्ण से कुछ कहा। यह क्षण गीता के प्रारंभ का महत्वपूर्ण बिंदु है।
विस्तृत व्याख्या:
• अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा - उसके बाद व्यवस्थित रूप से खड़े हुए (कौरवों) को देखकर। 'व्यवस्थितान्' शब्द कौरव सेना की अनुशासित और संगठित स्थिति को दर्शाता है।
• धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः - धृतराष्ट्र के पुत्रों को कपिध्वज (अर्जुन) ने। 'कपिध्वज' अर्जुन का एक उपनाम है जिसका अर्थ है 'वानर ध्वजा वाला'।
• प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते - शस्त्र संघर्ष के प्रारंभ होने पर। 'शस्त्रसम्पाते' का अर्थ है शस्त्रों का टकराव या युद्ध का प्रारंभ।
• धनुरुद्यम्य पाण्डवः - धनुष को उठाते हुए पाण्डव (अर्जुन) ने। यह अर्जुन की युद्ध के प्रति तत्परता को दर्शाता है, लेकिन अगले क्षण ही उनके मन में विषाद उत्पन्न होगा।
मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण: यह श्लोक अर्जुन की मानसिक स्थिति के परिवर्तन का प्रारंभिक बिंदु है। एक तरफ तो वे युद्ध के लिए तैयार हैं - धनुष उठा रहे हैं, दूसरी तरफ वे शत्रु सेना का सावधानीपूर्वक अवलोकन कर रहे हैं। यह अवलोकन ही उनके मन में संदेह और विषाद उत्पन्न करेगा।
प्रतीकात्मक अर्थ: 'कपिध्वज' शब्द का प्रयोग महत्वपूर्ण है। वानर ध्वजा हनुमान जी का प्रतीक है जो भक्ति और सेवा का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह संकेत करता है कि अर्जुन की विजय केवल शारीरिक शक्ति पर नहीं, बल्कि आध्यात्मिक शक्ति और भक्ति पर आधारित होगी।
यह श्लोक महाभारत युद्ध के उस निर्णायक क्षण को दर्शाता है जब अर्जुन युद्ध प्रारंभ करने से पहले अंतिम बार स्थिति का आकलन कर रहे हैं और उनके मन में संदेह उत्पन्न होना प्रारंभ हो रहा है।
कपिध्वज का महत्व: अर्जुन के रथ पर वानर ध्वजा लगी हुई थी जो हनुमान जी का प्रतीक थी। हनुमान जी रामायण काल में श्रीराम के भक्त और सेवक थे। महाभारत काल में वे अर्जुन के रथ की ध्वजा पर विराजमान थे और उन्हें शक्ति प्रदान कर रहे थे।
युद्ध की तैयारी: श्लोक में 'प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते' वाक्यांश युद्ध के तत्काल प्रारंभ होने की स्थिति को दर्शाता है। दोनों सेनाएं पूरी तरह तैयार थीं और युद्ध का समय आ चुका था।
अर्जुन की मानसिक स्थिति: इस समय अर्जुन की मानसिक स्थिति द्वंद्वपूर्ण है। एक तरफ वे महान योद्धा हैं जो युद्ध के लिए तैयार हैं, दूसरी तरफ वे संवेदनशील मनुष्य हैं जो अपने संबंधियों को सामने देखकर विचलित हो रहे हैं।
श्रीकृष्ण की भूमिका: इस श्लोक में श्रीकृष्ष्ण सारथी के रूप में उपस्थित हैं। सारथी का कार्य केवल रथ हांकना नहीं, बल्कि योद्धा का मार्गदर्शन करना भी होता है। श्रीकृष्ण की यह भूमिका आध्यात्मिक मार्गदर्शक की भूमिका का प्रतीक है।
ऐतिहासिक महत्व: यह क्षण ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी के बाद अर्जुन का विषाद प्रारंभ होगा और श्रीकृष्ण उन्हें गीता का उपदेश देंगे। यह मानव इतिहास के सबसे महान दार्शनिक संवादों में से एक का प्रारंभ है।
सांस्कृतिक प्रभाव: इस श्लोक ने भारतीय संस्कृति में 'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन' के दर्शन की नींव रखी। अर्जुन का संदेह और श्रीकृष्ण का उत्तर मानव जीवन के लिए एक सार्वभौमिक मार्गदर्शन बना।
यह श्लोक अर्जुन के विषाद के प्रारंभ का संकेत देता है। अब अर्जुन श्रीकृष्ण से अपना संदेह व्यक्त करेंगे और गीता का उपदेश प्रारंभ होगा।
श्लोक 20: अर्जुन का श्रीकृष्ण से रथ को दोनों सेनाओं के बीच में ले जाने का अनुरोध करना।
श्लोक 21-23: अर्जुन द्वारा युद्ध भूमि में अपने संबंधियों को देखकर मोह और दुःख व्यक्त करना।
श्लोक 24-25: अर्जुन का श्रीकृष्ण से युद्ध न करने का निर्णय सुनाना।
श्लोक 26-27: अर्जुन का विषाद और मोह में ग्रस्त होना।
श्लोक 28-30: अर्जुन के शारीरिक और मानसिक लक्षणों का वर्णन।
श्लोक 31-47: अर्जुन का विस्तृत विषाद और श्रीकृष्ण से प्रश्न।
श्लोक 48-50: अर्जुन का श्रीकृष्ण के पास बैठ जाना और युद्ध न करने का निश्चय।